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द्युत-सभा

द्युत-सभा

हिमांशु पाठक
              
                १
सोच रहा है;आज युधिष्ठिर,
खड़ा हुआ हो बीच सभा,
क्यों खेली थी! द्युत मैंने,
आज छली संग भरी सभा।।
शीश झुकें हैं;हो लज्जित सबके,
धीर-वीर लाचार खड़े,,
लुटी जा रही आज द्रोपदी,
मेरे कारण भरी सभा।।
पाप नहीं, नहीं अति-पाप है,
ये तो मुझसे है महापाप,
एक नारी को दांव,लगा बैठा ;
आज, मैं भरी सभा।।
क्या कर पाएगा?
क्षमा, मेरे कुकृत्यों को,
कालचक्र,आने वाला,
यही सोच हो,
अश्रु पुरित हो,
शीश झुकाए,
खड़ा युधिष्ठिर,
भरी सभा।।
        २
हाय!रे नियति,
कैसी पलटी मति,
कौन अशुभ थी
 वो घड़ी?
जब मैं कर बैठा था,
स्वीकार आमन्त्रण,
द्युत खेलने की चुनौती।।
अपनें अहम को,
तुष्ट करने को,
भरी सभा में आ बैठा,
और अपनों को ही ,
मैं! दाँव पर लगा बैठा।।
दिया ईश ने ,
तो सब कुछ था;
पर मैंने ही,
लुटा डाला।
धन, संपत्ति,
यश,वैभव,
कीर्ति, मान,
बंधु,और संगी।।
आज सब,
मुझसे विमुख हुए।।
वीर धनुर्धर,वीर गदाधर,
धीर-वीर,लाचार हुए
कर्तव्यों से बँधें हुएं
देखों! कैसे उनके
शीश लज्जा से,
झूके हुए।।
अपराधी मैं हूँ;
इन सब का,
क्या क्षम्य है;
मेरा ये कृत्य।
इसी विचार से,
ग्रसित युधिष्ठर,
शीश झुकाए,
लज्जित नयनों,
के साथ खड़ा है;
भरी सभा।।
         ३
दुर्योधन का साहस देखों,
मर्यादा को ताक धरा,
देता है आदेश दुशासन को,
और मौन साधे है भरी सभा!
कहाँ हुई विलुप्त नैतिकता?
क्या विवेक भी क्षीण हुआ?
नृप ने तो धारी है अंधता!
क्यों गांधारी मौन हुई?
कहाँ खो गयी?
भीष्म की वीरता!
द्रोण भले क्यों हुए लाचार?
सूतपुत्र क्यों हुआ सूरपुत्र?
आज इसका भी ज्ञान हुआ।
करूणामय कृंदन करती पांचाली।
और नपुसंक बनी सभा।।
ऐसी भी क्या लाचारी थी?
जो आंखों में पट्टी बांधी!
अंधमोह से ग्रसित हो,
राजा ने धारण की अंधता।
राजा तो था विवेक हीन;
पर तुम कैसे विवेकहीन बनीं?
एक नारी पर होते अधर्म को,
गांधारी ,तुम कैसे मौन रही।
एक नारी से प्रश्न पूछती है,
नारी; भरी सभा।।
                ४
सभा मौन है।
वीर निःशब्द है।
शीश झुकाए वीर खड़ें।
धर्मी, सदाचारी, भक्त ,संत,
सब मौन साधें हैं;
भरी सभा।
दुष्ट , दुशासन।
आज्ञाकारी अनुज बन,
चीर हरता है;
भरी सभा।
क्रुर अट्टहास,
से गुंजित होती है,
एक ओर भरी सभा
रुदन करती है,
एक नारी!
भर रही सिसकियां,
दूजी ओर है; भरी सभा।।
पति ने छला,
रिश्तों ने छला,
छला, आज है; 
अपनों ने।।
तम ही तम,
पसरा है मन में,
और नयनों में,
नीर भरा।
तभी अचानक,
ज्योति -पुंज का हुआ आगमन,
मन में आशा का संचार हुआ।।
हार भले ही सबने छोड़ा,
भर भाई ने मान धरा,
लाचार द्रोपदी के तन को,
अंबर ने आ घेर लिया।
मानों दुष्टों की दुर्मंशा पर,
किसी ने पानी फेर दिया।
चीर का एक टुकड़ा,
निकाल कर बांध कलाई में,
पांचाली ने अपना धर्म,
निभाया था।
आज उसी भाई ने,
आकर बहन की,
लाज बचाई है।
दृश्य विहंगम,
देख- देखकर,
हर्षित होती ,
भरी सभा।।।

समाप्त
हिमांशु पाठक
हल्द्वानी, उत्तराखंड
संपर्क सूत्र-७६६९४८१६४१

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7 Comments

वानी

11-Jun-2023 02:58 PM

Nice

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बहुत ही बेहतरीन और खूबसूरत अभिव्यक्ति

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कमाल का लिखा आपने 👌👌

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