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गंगा -जमुनी संस्कृति!

गंगा -जमुनी संस्कृति!

लहू न जम जाए, मिलना चाहता हूँ,
बुलंदियों से नीचे उतरना चाहता हूँ।
घुट रहा है दम आजकल के माहौल से,
बिना जंग विश्व देखना चाहता हूँ।

रावणों की आज भी कोई कमी नहीं, 
इस तरह की लंका जलाना चाहता हूँ।
भले न जला सको वफाओ का चराग,
गुनाहों से तुम्हें बचाना चाहता हूँ।

जमीं के बिना पहाड़ ठहर नहीं सकता,
अदब करो बड़ों का समझाना चाहता हूँ।
काटो मत हरे पेड़ों को ऐ! जगवालों,
बादल का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ।

तेरे दिन गुजर गए, मेरे दिन गुजर गए,
किया न तूने फोन बतलाना चाहता हूँ।
सोते हो आसमां में, यहाँ तक ठीक है,
किस मर्ज के हो दवा पूछना चाहता हूँ।

मानों फलदार पेड़ मुल्क है हमारा,
छाया सभी को देना चाहता हूँ।
भड़काओ न लफ्जो से आग डिबेट में,
गंगा-जमुनी संस्कृति बचाना चाहता हूँ।

रामकेश एम. यादव, मुंबई
(रायल्टी प्राप्त कवि व लेखक)

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5 Comments

Punam verma

23-Jun-2023 09:22 AM

Very nice

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Abhinav ji

23-Jun-2023 07:44 AM

Very nice 👍

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Madhumita

23-Jun-2023 12:49 AM

Nice 👍🏼

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