ले चल वहाँ भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे धीरे
ले चल वहाँ...
ले चल वहाँ भुलावा देकर,
मेरे नाविक धीरे-धीरे ।
जहाँ मिले वह गाँव पुराना,
मिलें खुशी के वृहद जखीरे ।।
भागदौड़ करते-करते अब,
थक जाते हैं मेरे पग।
लाख करूँ मैं यतन जीत का,
खड़े अडिग बाधा के नग।।
वर्तमान है कटुता का विष,
भविष्य मधुर स्वप्न जैसा,
इस जीवन में किसे पता है।
सुख आखिर होता कैसा।।
वह अतीत बनकर मधु स्मृति,
अंतर्मन को मेरे चीरे।
ले चल वहाँ भुलावा देकर,
मेरे नाविक धीरे-धीरे।।
प्रेम कहाँ माँ जैसा मिलता,
जनक सरीखा नेह कहाँ।
जलती नित्य आत्मा मेरी,
अब शीत बिखेरे मेह कहाँ।।
माँ आँचल में आज छुपा लो,
साँसें टूटी जातीं हैं।
ये पीड़ाओं की शाखाएँ,
मन में नित उग आती हैं।।
चाहूँ रहना उस आँगन में ,
जहाँ मिलें सब बिछड़े वीरे।
ले चल वहाँ भुलावा देकर ,
मेरे नाविक धीरे-धीरे।।
प्रीति चौधरी"मनोरमा"
जनपद बुलंदशहर
उत्तरप्रदेश
मौलिक एवं अप्रकाशित।
Shashank मणि Yadava 'सनम'
10-Sep-2023 09:03 PM
बहुत ही उत्कृष्ट और खूबसूरत अभिव्यक्ति
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Varsha_Upadhyay
22-Jul-2023 07:32 PM
बहुत खूब
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