अदल बदल भाग - 2
अदल-बदल
आजाद महिला-संघ की अध्यक्षा श्रीमती मालतीदेवी चालीस साल की विधवा थीं। अपने पति महाशय के साथ उन्होंने तीन बार सारे योरोप में भ्रमण किया था। वह योरोप की तीन-चार भाषाएं अच्छी तरह बोल सकती थीं। उनका स्वास्थ्य और शरीर का गठन बहुत अच्छा था। चालीस की दहलीज पर आने पर भी वे काफी आकर्षक थीं। मिलनसार भी वे काफी थीं। पति की बहुत बड़ी सम्पत्ति की वे स्वतन्त्र मालकिन थीं। विदेश में स्त्रियों की स्वाधीनता को देखकर उन्होंने भारत की सारी स्त्रियों को स्वाधीन करने का बीड़ा उठाया था। और भारत में आते ही आजाद महिला-संघ का सूत्रपात आरम्भ कर दिया था। इस आन्दोलन से उनकी जान-पहचान ब हुत बड़े-बड़े लोगों से तथा परिवारों में हो गई थी। उनकी बातें और बात करने का ढंग बड़ा मनोहर और आकर्षक था। दांतों की बतीसी यद्यपि नकली थी, पर जब वे अपनी मादक हंसी हंसती थीं तब आदमी का दिल बेबस हो ही जाता था। भिन्न-भिन्न प्रकृति और स्थिति के व्यक्तियों को मोहकर उन्हें अपने अनुकूल करने की विद्या में वे खूब सिद्धहस्त थीं।
मायादेवी की एक सहेली ने उनसे मायादेवी का परिचय कराया था। मायादेवी मालतीदेवी पर जी-जान से लहालोट थी। वह हर बात में उन्हें आदर्श मान उन्हीं के रंग-ढंग पर अपना जीवन ढालती जाती थी। परन्तु, मालतीदेवी के समान न तो वह विदुषी थी न स्वतन्त्र। उसके पति की आमदनी भी साधारण थी। अत: ज्यों-ज्यों मायादेवी मालती की राह चलती गई, त्यों-त्यों असुविधाएं उसकी राह में बढ़ती गईं, खर्च और रुपये-पैसे के मामले में उसका बहुधा पति से झगड़ा होने लगता। उसका अधिक समय आजाद महिला-संघ में, मालतीदेवी की मुसाहिबी में, गुजरता। घर से प्रायः वह बाहर रहती। इससे उनकी घर-गृहस्थी बिगड़ती चली गई। परन्तु जब उसके बढ़े हुए खर्चे में पति की सारी तनख्वाह भी खत्म होने लगी और रोज के खर्चे का झंझट बढ़ने लगा तब तो मास्टर जी का भी धैर्य छूट गया। और अब असन्तोष और गृह-कलह ने बुरा रूप धारण कर लिया। परन्तु पति के सौजन्य और नर्मी का मायादेवी गलत लाभ उठाती चली गई। उसकी आवारागर्दी, बेरुखाई, फजूलखर्ची और विवाद की भावनाएं बढ़ती ही चली गईं। उसे कर्ज लेने की भी आदत पड़ गई।
एक दिन मायादेवी ने मालतीदेवी से कहा---'श्रीमती मालतीदेवी, मैं आपका परामर्श चाहती हूं। मैं अपने इस जीवन से ऊब गई हूं। आप मुझे सलाह दीजिए, मैं क्या करूं।'
मालती ने उससे सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए कहा---'मेरी तुमसे बहुत सहानुभूति है, और मैं तुम्हारी हर तरह सहायता करने को तैयार हूं।'
'तो कहिए---मैं कब तक इन पुरुषों की गुलामी करूं।'
'मत सहन करो बहिन, पच्छिम से तो स्वाधीनता का सूर्य उदय हुआ है। तुम स्वाधीन जीवन व्यतीत करो। जीवन बहुत बड़ी चीज है, उसे यों ही बर्वाद नहीं किया जा सकता।
'इन पुरुषों की प्रभुता का जुआ हमें अपने कधे पर से उतार फेंकना होगा, हमें स्वतन्त्र होना होगा। हम भी मनुष्य हैं--पुरुषों की भांति। कोई कारण नहीं जो हम उनके लिए घर-गिरस्ती करें, उनके लिए बच्चे पैदा करें और जीवनभर उनकी गुलामी करती हुई मर जाएं!'
'यही मैं कहती हूं और यही चाहती भी हूं, पर समझ नहीं पा रही कि हूं कैसे अगला कदम उठाऊं।'
'तुम आजाद महिला-संघ की सदस्या हो। तुम्हारे बिचार बड़े सुन्दर हैं, संघ तुम्हें सब तरह से मदद करेगा। वह तुम्हें जीवन देगा, मुक्ति देगा। जिसका हमें जन्मसिद्ध अधिकार है, वह हमें संघ में मिल सकता है।'
'देखिए, वे स्कूल चले जाते हैं, तो मैं दिनभर घर में पड़ी-पड़ी क्या उनका इन्तजार करती रहूं या उनके बच्चे की शरारत से खीझती रहूं। यह तो कभी आशा ही नहीं की जा सकती कि वे मेरे लिए काई साड़ी लाएंगे या कोई गहना बनवाएंगे। आएंगे भी तो गुमसुम, उदास मुंह बनाए। आदमी क्या हैं बीसवीं सदी के कीड़े हैं। मालतीदेवी, क्या कहूं। उन्होंने कुछ ऐसी ठण्डी तबीयत पाई है कि क्या कहूं। मुझे तो अपनी मिलने वालियों में उन्हें अपना पति कहने में शर्म लगती है।"
'हिन्दुस्तान में हजारों स्त्रियों की दशा तुम्हारी ही जैसी है बहिन। इससे उद्धार होने का उपाय स्त्रियों का साहस ही है।'
'मैं तो अब इस जीवन से ऊब गई हूं। भला यह भी कोई जीवन है?'
'अपने आत्मसम्मान की, अधिकारों की, स्वाधीनता की रक्षा करो।'
'परन्तु किस तरह, कैसे मैं इस बन्धन से मुक्ति पा सकती हूं।' 'हिन्दू कोडबिल तुम्हारे लिए आशीर्वाद लाया है, नई जिन्दगी का संदेश लाया है। यह तुम्हारी ही जैसी देवियों के पैरों में पड़ी परतन्त्रता की बेड़ियों को काटने के लिए है। इससे तुम लाभ उठाओ।'
माया की आंखें चमकने लगीं। उसने कहा---'यही तो मैं भी सोचती हूं श्रीमती जी। आपही कहिए, चालीस रुपये की नौकरी, फिर दूध धोए भी बना रहना चाहते हैं। आप ही कहिए, दुनिया के एक कोने में एक-से-एक बढ़कर भोग हैं, क्या मनुष्य उन्हें भोगना न चाहेगा?'
'क्यों नहीं, फिर वे भोग बने किसके लिए हैं? मनुष्य ही तो उन्हें भोगने का अधिकार रखता है।'
'यही तो। पर पुरुष ही उन्हें भोग पाते हैं। वे ही शायद मनुष्य हैं, हम स्त्रियां जैसे मनुष्यता से हीन हैं।'
'हमें लड़ना होगा, हमें संघर्ष करना होगा। हमें पुरुषों की बराबर का होकर जीना होगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमने यह आजाद महिला-संघ खोला है। तुम्हें चाहिए कि तुम इसमें सम्मिलित हो जाओ। इसमें हम न केवल स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाते हैं, बल्कि स्त्रियों को स्वावलम्बी रहने के योग्य भी बनाते हैं। हमारा एक स्कूल भी है, जिसमें सिलाई, कसीदा और भांति-भांति की दस्तकारी सिखाई जाती है। गान-नृत्य के सीखने का भी प्रबन्ध है। हम जीवन चाहती हैं, सो हमारे संघ में तुम्हें भरपूर जीवन मिलेगा।'
'तो में श्रीमतीजी, आपके संघ की सदस्या होती हूं। जब ये स्कूल चले जाते हैं मैं दिनभर घर में पड़ी ऊब जाती हूं। यह भी नहीं कि वे मेरे लिए कुछ उपहार लेकर आते हों या मेरे पास बैठकर दो बोल हंस-बोल लें। ईश्वर जाने कैसी ठण्डी तबियत पाई है। चुपचाप आते हैं, थके हुए, परेशान-से, और पूरे सुस्ता नहीं पाते कि ट्यूशन। प्रभा है, उनकी लड़की, उसीसे रात को हंसते-बोलते हैं। कहिए, यह कोई जीवन है? नरक, नरक सिर्फ मैं हूं जो यह सब सहती हूं।'
'मत सहो, मत सहो बहिन, अपने आत्मसम्मान और स्वाधीनता की रक्षा करो।'
'यही करूंगी श्रीमती जी। परन्तु हमारा सबसे बड़ा मुकाबला तो हमारी पराधीनता का है, माना कि कानून का सहारा पाकर हम वैवाहिक बन्धनों से मुक्त हो जाएं, परन्तु हम खाएंगी क्या? रहेंगी कहां? करेंगी क्या? हम स्त्रियां तो जैसे कटी हुई पतंग हैं, हमारा तो कहीं ठौर-ठिकाना है ही नहीं।'
"उसका भी बन्दोबस्त हो सकता है। पहिली बात तो यह है कि हिन्दू कोड बिल जब तुम्हें मुक्तिदान देगा तो तुम्हारे सभी बन्धन खोल देगा। तुम्हें सब तरह से आजाद कर देगा। पहले तो हिन्दू स्त्रियां पति से त्यागी जाकर पति से दूर रहकर भी विवाह नहीं कर सकती थीं, परन्तु अब तो ऐसा नहीं है। तुम मन चाहे आदमी से शादी कर सकती हो। अपनी नई गृहस्थी बना सकती हो, अपना नया जीवन-साथी चुन सकती हो। इसके अतिरिक्त तुम पढ़ी-लिखी सोशल महिला हो, तुम्हें थोड़ी भी चेष्टा करने से कहीं-न-कहीं नौकरी मिल सकती है। तुम बिना पति की गुलाम हुए, बिना विवाह किए, स्वतन्त्रतापूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकती हो।'
'तो श्रीमती मालतीदेवी, क्या आप मेरी सहायता करेंगी? क्या आपके आसरे मैं साहस करूं? मैं तो बहुत डरती हूं। समझ नहीं पाती, क्या करूं।'
"आरम्भ में ऐसा होता है, पर बिना साहस किए तो पैर की बेड़ी कटती नहीं बहिन! तुम जब तक स्वयं अपने पैरों पर खड़ी न होगी तब तक दूसरा कोई तुम्हें क्या सहारा देगा?'
'तो आप बचन देती हैं कि आप मेरी मदद करेंगी?'
'जरूर करूंगी।'
'लेकिन कानूनी झंझट का क्या होगा?'
'मेरे एक परिचित वकील हैं, मैं तुम्हें उनके नाम परिचय-पत्र दे दूंगी। उनसे मिलने से तुम्हारी सभी कठिनाइयां हल हो जाएंगी।'
'अच्छी बात है।'
'मैं तुम्हारा अभिनन्दन करती हूं मायादेवी, मैं चाहती हूं तुम भी पुरुषों की दासता में फंसी दूसरी हजारों स्त्रियों के लिए एक आदर्श बनो। साहसिक कदम उठाओ और नई दुनिया की स्त्रियों की पथ-प्रदर्शिका बनो। मैं तुम्हारे साथ हूं।'
'धन्यवाद मालतजी,आपका साहस पाकर मुझे आशा है, अब कोई भय नहीं। मैं अपने मार्ग से सभी बाधाओं को बलपूर्वक दूर करूंगी।' 'तो कल आना। हमारा वार्षिकोत्सव है, बहुत बड़ी बड़ी देवियां आएंगी, उनके भाषण होंगे, भजन होंगे, नृत्य होगा, गायन होगा, नाटक होगा, प्रस्ताव होंगे और फिर प्रीतिभोज होगा। कहो, आओगी न?'
'अवश्य आऊंगी।'
'तुम्हें देखकर चित्त प्रसन्न हुआ। याद रखो, तुम्हारी जैसी ही देवियों के पैरों में पड़ी परतन्त्रता की बेडियां काटने के लिए हमने यह संस्था खोली है।'
जारी है