प्रकृति
प्रकृति
आंसू बहाती उत्पात मचाती भयंकर बरसात नहीं
रुदन है प्रकृति का
जख्म अपने दिखाने आई है
कर दिया कण कण छलनी
छीन लिए घाट नदियों के किनारे बन पटवारी
इंच इंच का हिसाब करनेआई है दोष क्या प्रकृति का ?
ए इंसान
आग तेरी खुद की लगाई है
नियम प्रकृति के माने कहां
चंद वोटों की खातिर
नियमों की धज्जियां उड़ाई हैं
खाने को दिया
रहन-सहन तेरा उठाया
एक से एक नायाब तोहफा दिया
कर सहन हर जुल्म तेरा
प्रकृति ने प्यार ही प्यार लुटाया कद्र तूने कहां जानी
हठधर्मी है तू
निज स्वार्थ की खातिर वात्सल्य से भरपूर प्रकृति मां को बहुत रुलाया तूने
इशारे किये बार-बार तुझे
न माना हठ पर अड़ा रहा
मजबूर हो
प्रकृति ने रौद्र रूप दिखाया है अपराधी है तू
सजा तो पाएगा
बेबस हो देखता ही रह जाएगा
आंसू बहाती उत्पात मचाती भयंकर बरसात नहीं
रुदन है प्रकृति का
जख्म अपने दिखाने आई है
बन पटवारी
इंच इंच का हिसाब करने आई है
मौलिक रचना
उदय वीर भारद्वाज
भारद्वाज भवन
मंदिर मार्ग कांगड़ा
हिमाचल प्रदेश 176001 मोबाइल 94181 87726
Varsha_Upadhyay
08-Aug-2023 04:10 AM
बहुत खूब
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