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नया जमाना

भवन बनाए महलों जैसे,

परिवार में बस दो जने।
अक्षर गिनती बहुत पढ़ गया,
छोड़ संस्कारी गहने।

इलाज विदेशी मंहगा भी,
बीमारी फिर भी न गई,
सात समंदर पार है लाल,
आ न पाया माँ मर गई।

चंद्रमा के ख्वाब सुहाने,
नाम पड़ौसी का न पता,
उखड़ रही है सांस पिता की,
पुत्र का नहीं अता-पता।

आमदनी लाखों में पहुँची,
मदद बहन की नहीं हुई,
बौद्धिक स्तर विकसित हो गया,
भावनाएं शून्य हुई।

ज्ञान हासिल सीख भी अच्छी,
अक्ल व्यवहार साथ नहीं,
प्रिय सम्बंध खूब बना लिए,
सच्चा प्रेम हालात नहीं।

फेसबुक पर दोस्त बहुत हैं,
अनुज से बोलचाल नहीं,
भारत भ्रमण दुनिया घूमी,
रिश्तों से दरकार नहीं।

इंसान खुद को अच्छा समझें,
मानवता से दूर हुए,
पत्नी बच्चे सिमटी दुनिया,
रिश्ते कच्ची डोर छुए।

मंहगे सूट पर दर्प बहुत,
खानदान पर गर्व नहीं,
घड़ी विदेशी सजे कलाई,
"श्री" मिलने का वक्त नहीं।

स्वरचित-सरिता श्रीवास्तव "श्री"
धौलपुर (राजस्थान) 


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6 Comments

Gunjan Kamal

04-Sep-2023 05:06 PM

👏👌

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Swati chourasia

03-Sep-2023 12:39 PM

बहुत ही बेहतरीन रचना हृदयस्पर्शी 👌👌

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जी अनुपम सृजन। वर्तमान परिदृश्य का सटीक और सजीव चित्रण। प्रशंसनीय। नमन आपकी लेखनी को।

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