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देर ना करें




देर ना करें

   महेंद्र बाबू के कानों में अचानक पार्क में अपने सामने बैठे जोड़े की आवाज पहुँचीऔर उनका ध्यान उधर चला गया। स्त्री कह रही थी अपने पुरुष साथी से –


    "मेरी भी कुछ इच्छाएं हैं,मैं बाहर घूमना चाहती हूं आपके साथ,कभी सिनेमा देखना चाहती हूं आपके साथ। मैं पूरे परिवार के लिए कर तो रही हूं। मां बाबूजी की देखभाल भी कर रही हूं, छोटा देवर ननद का सब काम कर ही रही हूं। सभी को समय पर खाना-नाश्ता,दवाइयां आवश्यकता के अनुसार कुछ भी करने में मैं थोड़ा भी परहेज नहीं कर रही हूं। बस कभी एक-दो दिन के लिए भी आप मुझे बाहर ले चलें घूमने यही तो आपसे चाहती हूं। कभी किसी अवकाश के दिन हम सुबह से शाम तक एक साथ रहें अकेले । इसके अतिरिक्त मैं आपसे कुछभी तो नहीं मांग रही।"



 पुरुष ने जो संभवत उस स्त्री का पति था थोड़ी झुंझलाहट के साथ कहा –
   "मायके तो जाती ही हो न तुम! जितने दिन भी तुम मायके रहती हो कभी मां बाबूजी ने मना किया!"



    मायके मैं घर की जिम्मेवारियों से भाग कर नहीं जाती। वहां कुछ आवश्यक काम होता है या कोई समारोह होता है तभी जाती हूं।और मैं मायके जाने की बात भी नहीं कर रही हूं मैं तो बस आपके साथ एक-दो दिन के लिए भी कहीं बाहर जाना चाहती हूं जहां सिर्फ मैं और आप चलें।



 "कहीं बाहर घूमने ले जाना मैं अभी अफोर्ड नहीं कर सकता। इतने लोग जाएंगे। सब का टिकट,साथ में बाहर होटल मैं रहने खाने का खर्चा मैं कैसे अफोर्ड कर पाऊंगा।"



     स्त्री की आवाज आई – "मैं सबको लेकर जाने को कहां कह रही। मैं तो कह रही सिर्फ मैं और आप जाएंगे वह भी बहुत दूर नहीं। बस कहीं भी बाहर सिर्फ एक-दो दिन के लिए। यहां भी किसी अवकाश के दिन मैं आपके साथ में कभी महीना में एक दिन ही सही बिताऊं बस इतना ही तो चाहती हूं।"



    "पुरुष की आवाज तुम जानती हो हमारा संयुक्त परिवार है। मैं मां बाबूजी और छोटे भाई बहन को छोड़कर तुम्हारे साथ घूमने निकल जाऊं। यह कैसे कर सकता हूं मैं!कितना बुरा लगेगा सभी को। हमारी जिम्मेवारियां पूरी होने दो,फिर तुम जहां कहोगी मैं तुम्हें ले जाऊंगा। हम हर अवकाश का दिन बाहर ही बिताएंगे।"



   " हां क्यों नहीं सभी जिम्मेदारियां पूरी होते होते हम ही छुप जाएंगे फिर ना मुझ में कहीं बाहर जाने की इच्छा रहेगी ना आपमें।"



   सामने की बेंच पर बैठे पति-पत्नी की बातें सुनकर उनके समक्ष अपनी दिवंगत पत्नी सीमा का चेहरा आ गया,और उन्होंने सोचा – वह सीमा की इच्छा तो पूरी नहीं कर पाए परंतु इस मासूम के साथ वही अन्याय नहीं होने देंगे। फिर कोई सीमा अपनी इच्छा अधूरी लिए वापस उस लोक में न चली जाए,इसके लिए उन्हें प्रयास अवश्य करना चाहिए। यह सोचकर वे अपनी बेंच से उठकर आगे बढ़े और उन पति पत्नी के पास जाकर बोले –


    "बच्चों क्या मैं आपके पास थोड़ी देर बैठ सकता हूं ?"
    उन्होंने खिसक कर उनके लिए जगह बना दी और पति ने कहा –
      "अंकल यदि आपको यहां आराम करना है तो हम यहां से उठ जाते हैं।"
    "नहीं-नहीं बच्चों!मैं तो सिर्फ आप लोगों से थोड़ी बातें करने यहां आया हूं। आपने शायद ध्यान नहीं दिया होगा। मैं आपके पीछे वाली बेंच पर बैठा हुआ था,तभी आप दोनों की कुछ बातें मैंने सुनी। इसलिए मैं यहां चला आया,आपसे बातें करने।"



     अब तो पति-पत्नी दोनों का चेहरा थोड़ा धुआं-धुआं सा होने लगा था यह सोचकर कि उनकी बातें सुनकर पता नहीं बुजुर्ग को कैसा लगा होगा। शर्मिंदा होते स्त्री ने उनसे कहा –


    "वह अंकल कुछ ऐसी बड़ी बात नहीं थी।बस हम तो ऐसे ही....."

    उसकी बात काट कर महेंद्र जी ने बीच में ही कहा –


     "बिटिया ऐसी छोटी-छोटी बातें जो बड़ी नहीं दिखती हैं, कभी-कभी बहुत बड़ी हो जाती हैं। मैं तुम्हें वह बातें सुनाता हूं,जो मेरे साथ ही घटी। वह सुन लो फिर तुम लोग कुछ भी निर्णय करना। तुम्हारे समान मेरा परिवार भी बहुत बड़ा था माता-पिता भाई बहन सभी की जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी,क्योंकि पिताजी अक्सर बीमार रहते थे और उनका काम छूट गया था।


     मेरी पत्नी सीमा ने आते ही पूरे परिवार को संभाल लिया था। मेरे माता-पिता का बहुत सम्मान करती,भाई-बहनों से भी बहुत स्नेह करती। बस तुम्हारे समान ही उसे भी इच्छा होती थी कभी मैं उसे पूरे दिन घूमने ले जाऊं। कभी उसके साथ अकेले सिनेमा देखने जाऊं। कभी एक-दो दिन के लिए बाहर जाऊं।


    सिर्फ उसके लिए तो मैं यह सब कुछ कर सकता था,लेकिन पूरे परिवार के साथ यह सब करना मेरे लिए भी संभव नहीं था। मैं उसे हमेशा टाल दिया करता था यही कहकर कि जिम्मेवारियां पूरी होगी फिर हम साथ में घूमेंगे।
  कभी-कभी तो डांट भी देता था,कभी उस पर स्वार्थी होने का भी आरोप लगा देता था। जबकि वह निस्वार्थ भाव से मेरे पूरे परिवार की देखभाल करती थी। हम बस कभी-कभी मंदिर चले जाते थे। उसमें भी मेरा परिवार मेरे साथ अवश्य होता था। मैं अपनी पत्नी को कभी समय नहीं दे पाया। मेरी जिम्मेवारियां कभी खत्म ही नहीं हुई।



   माता-पिता की बीमारी और उनकी देखभाल में समय बीतता रहा। उनके बाद अपने बच्चों की जिम्मेवारियां भी आ गई। भाई बहन और अपने बच्चों शिक्षा उनका भविष्य सुनिश्चित करने की चिंता मैं हम दोनों लग रहे। फिर उन सब के विवाह की जिम्मेवारी आई। सबका विवाह भी संपन्न होता गया,और उन सब की अपनी अलग-अलग गृहस्थी बसती गई। यह सब जिम्मेवारियां पूरे करते-करते हमारी उम्र ही बीत गई।



    मुझे याद आ रहा है अभी भी मेरी पत्नी सीमा भी हमेशा कहा करती थी सारी जिम्मेवारियां खत्म होने के बाद हमारी भी तो शक्ति खत्म हो जाएगी, इच्छाएं भी तो समाप्त हो जाएंगी फिर हम क्या कहीं बाहर घूमेंगे। लेकिन मैं उसकी बातों और इच्छाओं को हमेशा अनदेखा-अनसुना करता रहा। उसकी इच्छा पूरी करने का कभी कोई प्रयास नहीं किया। सदा अपने परिवार के संबंध में ही सोचा। सीमा भी मेरे परिवार का,मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा थी यह कभी सोच ही नहीं पाया। उसे बस मैं अपने कर्तव्य में भागीदार बनाया था।



   अब जब मैं बिल्कुल अकेले रह गया हूं,भाई,बहन, अपने बच्चों,किसी के पास मेरे लिए कोई समय नहीं है। सभी अपने परिवार में व्यस्त हैं तब सीमा के लिए सोचा करता हूं। अब लगता है यदि मैने सीमा की छोटी-छोटी इच्छाओं को पूरा किया होता,मेरे परिवार में संभवत किसी को बुरा भी नहीं लगता। हम पूरे परिवार की देखभाल भी तो कर रहे थे उन्हें भी समझ सकता था की सीमा के प्रति भी मेरे कुछ कर्तव्य है। लेकिन मैं उन्हें कैसे समझाना मैं तो स्वयं ही नहीं समझ पाया था कि सीमा के प्रति भी मेरे कर्तव्य है। मुझे और मेरे परिवार को सिर्फ सीमा के कर्तव्य दिखते थे।



    आपकी पत्नी भी आपके जीवन का अभिन्न हिस्सा है। इसका भी अपने पर अधिकार मानो,इसे सिर्फ अपने कर्तव्य में ही सम्मिलित मत करो। मेरा अनुरोध है आप "देर न करें"।ले सकें तो मेरे जीवन से अवश्य सबक लेना और अपनी पत्नी की इच्छाओं का भी सम्मान करना। ऐसा न हो थोड़ी देर-थोड़ी देर करते-करते फिर बहुत देर हो जाए।"



    अपनी बातें समाप्त कर महेंद्र जी वहां से उठकर चले गए पार्क में टहलने,और वह पति-पत्नी आश्चर्यचकित हो उनकी पीठ देखते रहे। फिर पति ने पत्नी के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर दबा दिया, और मुस्कुराकर कहा –
   "मैं अंकल की तरह देर नहीं करूंगा।" अचानक जाते हुए महेंद्र जी ने पीछे पलट कर देखा और इन दोनों पति-पत्नी की भाव मुद्रा देख मुस्कुरा कर अपने हाथ का अंगूठा उठाकर उनकी और मुस्कुरा कर देखा फिर पलट कर वापस चले गए। और ये पति-पत्नी उनकी पीठ तब तक देखते रहे जब तक वह दृष्टि पथ में आते रहे।




     स्वरचित
        ©®
    निर्मला कर्ण




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8 Comments

Anjali korde

15-Sep-2023 12:25 PM

Nice

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Babita patel

15-Sep-2023 10:39 AM

V nice

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hema mohril

13-Sep-2023 07:44 PM

Amazing

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