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नदी

*नदी*

नदी की विकलता-
उसकी सतत प्रवाहिनी
कल-कल करती चंचल धारा-
संचार करती किसी अनबुझ
संदेश का-
चीरती हुई पत्थरों का कठोर सीना
चली जाती है मिलने-
अपने प्रियतम सिंधु से।
वचन की पक्की
प्रतिवद्धता का अनुपालन करती
बिना थके-बिना रुके
उमड़ती-थिरकती-बलखाती
सिमट जाती है अपने साजन 
की बाँहों में बेहिचक-बेलौस।
लुटा देती है अपना सर्वस्व-
समर्पित हो जाती है मनसा-वाचा-कर्मणा।
होकर अलक्ष्य
होकर अस्तित्व-विहीन
अनामा-
संज्ञा-विहीना।
आत्मा का परमात्मा से
सम्भवतः ऐसा ही है-
मिलन!
भौतिकता के बंधन से
सर्वथाभवेन मुक्त।
न कोई नाम-न कोई पहचान।
बस,केवल एक ही नाम
और वह है-
परमात्मा,
    एकमेव सत्य!!
                  ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                       991944 63 72

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8 Comments

Suryansh

30-Sep-2023 10:17 AM

खूबसूरत भाव

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Punam verma

30-Sep-2023 09:00 AM

Very nice

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Babita patel

30-Sep-2023 06:44 AM

V nice

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