अकेला
प्रतियोगिता हेतु रचना
अकेला
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जब तक तन में सांस रही तब तक मैं रहा अकेला।
सांस ने जैसे साथ है छोड़ा तो घर में लगा है मेला।।
दुश्मन भी गुणगान कर रहे आज खड़े हैं द्वारे।
जीवित रहते जो कभी ना आए वो भी द्वार पधारे।।
मुझसे थी ना हमदर्दी उनको जिन्दा रहते ना आए।
मरने की जब खबर मिली तो भाग के दौड़े आए।।
कफ़न उठा कर चेहरा देखैं घड़ियाली अश्रु बहाते।
पता नहीं था चले जाएंगे वरना पहले मिल जाते।।
मोबाईल ने किया है ऐसा मानवता पर खेला।
मानव,मानव से दूर हो गया मानव रह गया अकेला।।
एक ही कमरे में बैठे आपस में बात ना करते।
सबके हाथों में मोबाइल है बस चैटिंग करते रहते।।
"पथिक" भी राह से भटक गया मोबाइल का हुआ गुलाम।
उसकी भी तो मजबूरी है मोबाइल करता सब काम।।
कवि विद्या शंकर अवस्थी पथिक कानपुर
Gunjan Kamal
09-Nov-2023 04:51 PM
👏👌
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Mohammed urooj khan
18-Oct-2023 05:24 PM
👌👌👌👌
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Punam verma
17-Oct-2023 07:55 AM
Nice
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