दर्द
दर्द वह अनुभूति है, जिसे कोई भी प्राणी पसंद नहीं करता। या, यूं कहा जाए कि दर्द हमारे भीतर छिपी हुई वह अदृश्य शक्ति है, जिसे हम स्वीकारना ही नहीं चाहते। जब भी कोई मनुष्य किसी भी प्रकार के दर्द को महसूस करता है यही सोचता है, कि काश ! मुझे यह दर्द ना मिलता। हम में से कोई भी दर्द को गले नहीं लगाना चाहता। परन्तु, सत्य यही है कि दर्द में ही हमारी वास्तविक प्रगति छिपी होती है।
हम दर्द को दो प्रकार से महसूस कर सकते हैं। एक वह जो बाह्य होता है, जिसे हमारे सिवा और भी दूसरे लोग महसूस कर सकते हैं। उदाहरणतः किसी के जब चोट लग जाती है, और वह दर्द में होता है तो, वह दर्द सभी को दिखता एवम् महसूस होता है।
वहीं दर्द का दूसरा प्रकार वह होता है । जब हम किसी के दर्द को ना तो देख पाते हैं और ना ही महसूस कर पाते हैं। वह होता है, उस व्यक्ति का आंतरिक दर्द।
अक्सर, होता यह है कि हम किसी के बाह्य दर्द के बारे में कुछ टीका टिप्पणी नहीं करते, अपितु उसे सांत्वना एवं सहानुभूति दिखाते हैं। परन्तु, जब कोई व्यक्ति आंतरिक दर्द से ग्रसित होता है हमें पता ही नहीं चलता, क्योंकि ना तो हम उस दर्द के पीछे छिपे हुए कारण को देख पाते हैं, और ना ही उसे महसूस कर पाते हैं।
तब हम क्या करते हैं?
हम उस व्यक्ति के बारे में मन गढंत तरीकों से राय बनाने लगते हैं।
यह सब यहीं समाप्त नहीं होता, वह मन से बनाई गई राय फिर हम दूसरों को भी बताने लगते हैं। यह भावना हम पर इस प्रकार हावी हो जाती है कि अंजाने ही हमारे भीतर उस व्यक्ति को सबके समक्ष नीचा दिखाने की भावना एवं इच्छा बलिष्ठ होती चली जाती है।
अक्सर, एक मनुष्य का आंतरिक दर्द दूसरे मनुष्य के लिए उपहास का साधन बन जाता है। ऐसा करते हुए हम स्वयं को स्वयं ही की आत्मा एवं नज़रों के समक्ष कई गुना छोटा, और ओछा बना देते हैं। एवं ना तो हम स्वयं इस तथ्य को जान पाते हैं और ना ही इस बीमारी से स्वयं को मुक्त करवा पाते हैं।
और जब इस बात का पता उस दुखी मनुष्य को चलता है तो आप और हम यह अनुमान बहुत आसानी से लगा सकते हैं कि उसे उस समय कैसा महसूस होता होगा?! यह बात मन गढंत राय बनाने वालों के लिए बहुत ही शर्मनाक होनी चाहिए।
दर्द
शायद इसीलिए, कुदरत ने "कर्म का नियम" बनाया है। मनुष्य स्वयं जो करे वह स्वयं उसी को भोगे। यह सत्य भी है, ईश्वर कभी गलत नहीं हो सकते। परन्तु, एक दुखद सत्य यह भी है कि मनुष्य इतना कुछ होने पर भी स्वयं में सुधार नहीं कर पाता। अतः इन कर्मों के चक्रव्यूह में फंसता ही चला जाता है। और फिर वही कर्म मनुष्य के संस्कार बन जाते हैं, उसकी आदत बन जाते हैं। परिणामस्वरूप वह आजीवन भटकता ही रहता है। और एक अंजाने से दर्द को सहता रहता है।
आइए आज इस अवसर को पहचानें। आत्मावलोकन करें एवं संकल्प लें कि एक बेहतर मनुष्य बनने हेतु ना तो कभी किसी के दर्द का उपहास बनाएंगे एवं ना ही उसके बारे में जाने बिना गलत राय बनाकर उसका एवं स्वयं का जीवन नरक बनाएंगे।
~चुनाव आपका है।
Mahendra Bhatt
28-Aug-2021 11:14 AM
Wow
Reply
Swati Sharma
11-Dec-2021 03:45 PM
Thanks
Reply
Sonali negi
03-Jun-2021 04:04 PM
Osmm
Reply
Swati Sharma
10-Jun-2021 07:32 AM
Thnx
Reply
ABHIJIT RANJAN
22-May-2021 04:20 PM
बहुत सुंदर प्रस्तुति
Reply
Swati Sharma
26-May-2021 02:32 PM
धन्यवाद
Reply