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मुक्तक

उलझे कागज के फूलों से, खुशबुएं बांट दी हमने।

ये दामन रह गया खाली, शिफ़ाएं बांट दीं हमने।
घरोंदा तोड़कर जालिम, बेवफा उड़ गई कोयल,
उसी बेदर्द नाजनीं को, दुआएँ बाँट दी हमने।

फटे-हाल हैं कपड़े जवां जिस्म झलकता है,
चादर मुफलिसी छोटी बदन नंगा चमकता है,
सोया ज़मीर लोगों का शर्मसार हुई मानवता,
लोथड़े मांस के फिरभी हवस मंजर मचलता है।

मत झुको इतना कि वह खुदा ही हो जाए,
न दुत्कारो उसे इतना कि बेफ़िजूल हो जाए,
उसे उमके बजूद का हो अहसास जरूरी है,
अहमियत अपनी समझाओ गुमां उसको भी हो जाए।

ए जिंदगी तू कैसी चालें चलती है, 
दिखाके मंजर यूं बेहाल करती है, 
भटक गया इंसानियत से मानव,
बेबसी ठहाका लगा के हंसती है। 

बद्दुआ से मर जाता गर इंसान, 
तो जुल्म कभी नहीं करता इंसान, 
फिर सुकून न होता, उम्मीद न होती, 
न ईश्वर से गुहार करता इंसान।

समंदर के माँझी तू लहरों से कभी मत हार।
उठते हों कितने भी गहरे भाटे और ज्वार,
तू ही एक ठिकाना है सरिता के समाने का,
तू समेटे है न जाने कितनी सरिताओं के गुबार।

जिन्हें है नफरत अहसास कराते है कहते नहीं,
जो प्यार करते हैं वे ही जताते हैं कहते नहीं,
प्रीत का अहसास ठंडी फुहार बन बरसता है,
जहाँ स्वार्थ प्यार है प्यार कहते हैं करते नहीं।

स्वरचित-सरिता श्रीवास्तव "श्री"
धौलपुर (राजस्थान) 

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8 Comments

Pranav kayande

09-Jan-2024 04:25 AM

fantastic

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Gunjan Kamal

08-Jan-2024 08:09 PM

👏👌

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Rupesh Kumar

07-Jan-2024 07:57 PM

Nice

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