लेखनी प्रतियोगिता -12-Feb-2024
आज का विषय --शीर्षक -- *प्रेमचंद साहित्य में मुखर दलित चेतना व विविध स्वर*
साहित्य देश ,काल ,परिस्थिति के अनुकूल होना चाहिये। तत्कालीन काल के आह्वान, चुनौतियों, समस्याओं का वर्णन करना ही पर्याप्त नहीं होता।यथासंभव समाधान भी उपलब्ध होना चाहिये तभी लोग साहित्य और साहित्यकार को स्वीकारते हैं। इस कसौटी पर प्रेमचंद का साहित्य खरा उतरता है। जब देश में स्वतंत्रता का आंदोलन चरम पर था तब प्रेमचंद का लेखन भी यौवन पर था।प्रेमचंद न केवल आंदोलन से जुड़े,यातनाएँ भोगी अपितु लेखन का विषय भी बनाया।
व्यक्ति जिस समाज में रहता है वहाँ उसके संबंध अनेक प्रकार एवं कई स्तर के लोगों से जुड़ जाते हैं।सबकी सोच ,व्यवहार,स्वार्थ,आवश्यकता, रहन-सहन,भोजन-पानी अलग अलग होते हैं। क्षमता व योग्यता भी भिन्न होती है। इन विभिन्नताओं का परिणाम व्यक्ति, समाज पर पड़ता है उसका आचरण प्रभावित होता है। उससे उबरने की इच्छा तथा प्रयास किसी काम नहीं आते । व्यक्ति तथा समाज की इस मजबूरी का ही जीवंत चित्रण प्रेमचंद साहित्य में मिलता है।
प्रेमचंद का कहना था कि *लेखक प्रगतिशील होता ही है। जो प्रगतिशील नहीं वह लेखक नहीं।साहित्यकार का कर्तव्य ही है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शाश्वत जीवन सिद्धांतों के प्रकाश में कालबाह्य प्रथाओं के प्रति लोगों को जागृत कर भावी जीवन की सफलता के लिए समाधान परक सकारात्मक सोच के साथ पग बढाने की प्रेरणा के भाव जगायें।*
साहित्य की भाषा उस देश व समाज के अन्तर्मन की होनी चाहिये, जिस समाज के लिए उसकी रचना हुई है। यहाँ भाषा का तात्पर्य लिपि व शब्दार्थ से नहीं है अपितु जनमानस की समझ से है।
प्रेमचंद की सफलता का राज यही है कि उनकी रचना हर वर्ग हर श्रेणी के पाठक के लिए सुगम्य, सुबोध थी।
महात्मागांधी के हरिजन उद्धार के प्रयास से लेकर प्रेमचंद के साहित्य में निहित दलित -स्वर अथवा कहें दलित -विमर्शकी तरफ दृष्टि घूम जाती है।
दलित विमर्श का स्वर बीते कुछेक सालों से काफी मुखर हो रहा था जिसे वर्तमान में उसका समाधान ,स्थायित्व मिल गया ,ऐसा आभास हो रहा है।क्यों कि वर्तमान में भारत के राजनैतिक पटल का परिदृश्य बहुत तेजी से बदल रहा है जो सभी को आश्चर्य चकित कर रहा है। साथ ही कुछ प्रश्न भी मस्तिष्क को मथ रहे हैं कि एक तरफ वो तबका जो पिछड़ा हुआ था,अस्पृश्य माना जाता था ,समाज का चतुर्थ अंग था वह न केवल मुख्यधारा में सम्मिलित हो चुका है अपितु बड़े बड़े सम्मानित पदों पर काबिज भी है। तब ,क्या सवर्ण और सामान्य वर्ग का राजनीति से अलगाव शुरु ?राजनीति में परंपरा से वर्षों से शामिल इन वर्गों के भविष्य का क्या ??
*दलित चेतना और दलित साहित्य* शब्द आज जितना संकुचित और सीमित अर्थों में प्रयुक्त हो रहा है,प्रेमचंद के समय में इतना सीमित अर्थ नहीं था इन शब्दों का। आज दलित वर्ग द्वारा सृजित ऐसा दलित साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है जो न केवल अपना स्वतंत्र अस्तित्व उद्घोषित कर रहा है अपितु अपने सिद्धांत और सौंदर्य बोध को सामान्य धारा से एकदम अलग स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील है। यह धारा मानती है कि दलित साहित्य की संज्ञा तभी मान्य हो सकती है जब उसे किसी *दलित ने ही लिखा हो*। उनका यह भी मानना है कि कि गैर दलितों को दलितों से संबंधित लेखन का हक ही नहीं है क्यों कि वह भोगा हुआ यथार्थ और सत्य नहीं लिख सकते। यह कहते हुये वह भूल जाते हैं कि अछूतोद्धार और अस्पृश्यता निवारक आंदोलन की शुरुआत सवर्णों द्वारा ही की गयी थी। इस आंदोलन का मुख्य विषय अछूतोद्धार और अस्पृश्यता उन्मूलन ही था परंतु स्वतंत्रता की लड़ाई में प्रत्येक पीडि़त,वंचित,निर्धन और शोषित वर्ग भी शामिल था। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति जैसे पारिभाषिक शब्द स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद के संविधान की देन है । और तभी अम्बेडकर जी ने भी दलित के लिए आवाज उठाई थी जबकि आंदोलन स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व शुरू हो चुके थे।
अन्याय और शोषण से पीड़ित प्रत्येक व्यक्ति दलित की परिधि में आता था ओर साहित्य अपने ढंग से इसकी अभिव्यक्ति में अपना योगदान कर रहा था। उस दौर में सिनेमा ने भी इस दिशा में काम किये थे और प्रेरक फिल्मों का निर्माण हुआ था जैसे अछूत कन्या। इसी तारतम्य में प्रेमचंद सृजित साहित्य अपनी अहम भूमिका निभाता है जो आज भी सार्थक है। उनकी लगभग सभी कहानियों,उपन्यासों में यह *दलित पीड़ा* मुख्य,केन्द्रीय विषय में उभरी है।
प्रेमचंद के लेखन में दलित-चेतना का दूसरा पहलू भी दिखता है वह है दलित स्त्री विमर्श।इस विषय पर भरपूर प्रकाश डालने के लिएउदाहरण रूफ में प्रेमचंद की दो कहानियों के नाम ही काफी होंगे ।एक -- *दो कब्रें* और दूसरी *आगा-पीछा*।
दोनों ही कहानियाँ वेश्यावृत्ति छोड़ चुकी दो महिलाओं की पुत्रियों से संबंधित है। वेश्या की लड़की से विवाह करने पर परिवार और समाज की क्या प्रतिक्रिया होती है ?लड़के की मानसिकता पर क्या असर पड़ता है , उसके सब चीजों को देखने का दृष्टिकोण कैसे बदलता है ?यह सब बहुत ही बेहतरीन ओर मार्मिकता से प्रेमचंद ने उभारा है। जैसे दो कब्रें नामक कहानी --- *विवाह के बाद रामेंद्र को नया अनुभव हुआ। महिलाओं का आना -जाना प्रायः बंद हो गया इसके साथ मर्द दोस्तों की आमद रफ्त बढ़ गयी।.....रामेंद्र को अब मालुम पड़ा कि वे जो महाशय आते हैं और घण्टों बैठे सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों पर बहसें किया करते हैं,वास्तव में विचार-विमर्श के लिए ही नहीं बल्कि रूप की उपासना के लिए आते हैं। उनकी आँखें सुलोचना को खोजती रहती हैं।*
सामाजिक बहिष्कार की चरम स्थिति पुत्री के जन्म पर पहुँचती है और सामाजिक.बहिष्कार रामेंद्र के मन पर इतना गहरा प्रभाव छोड़ता है कि प्रतिक्रिया स्वरुप विवाह के औचित्य के प्रति शंकित हो उठता है और वह पत्नी से सभी पुराने नाते रिश्ते ,संबंधों को छोड़ने का दबाव बनाता है।और यहीं उठती है *स्त्री अधिकारों की बात* और सुलोचना स्पष्ट कहती है कि स्त्री मजबूर नहीं कि आपकी आँखों से देखे या आपके कानों से सुने।......यह निश्चय करने का अधिकार है कि कौन सी चीज उसके हित में हैं ,कौनसी नहीं।
कहानी में नायिका की आत्महत्या ध्वनित है ,कथित नहीं।यह कहानी वेश्या समाज के उत्थान से जुड़ी है और हमारे समाज की तद्विषयक जड़ता की ओर संकेत करती है।दूसरी कहानी आगा-पीछा में भी नायक ऐसे अंतर्द्वंद्व में फँसा है कि उसका प्रेम ,विवाह के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है। उसकी अंतश्चेतना में संदेह का बीज अंकुरित हो उठता है।वह चाहता है कि वेश्यापुत्री जो अब उसकी पत्नी है वह स्वयं की परम्परा की नीति को तोड़ दे।वह सवाल करता है कि *क्या वह खून के असर का नाश कर सकेगी?* जबकि नायक चमार होते हुये सुधारवादी,सामाजिक कार्यकर्ता व अर्थशास्त्र का प्राध्यापक भी है।
यद्यपि इस तरह की कहानियाऋ तत्कालीन लेखक समाज के मापदण्डो के अनुसार कला पक्ष में स्तरीय नहीं मानी गयी परंतु एक समस्या सामने तो रखती ही है। और दलित वर्ग से संबंधित भी है। *दलितवर्ग का पुरुष भी* वेश्यावृत्ति और उसके रीतिरिवाजों के प्रति किस प्रकार की मनोवैज्ञानिक सोच रखता है ,यह तो स्पष्ट हो ही जाता है।
प्रेमचंद उस व्यक्ति और कृत्य के विरुद्ध खड़े नज़र आते हैं जो धर्म ,कानून या वंशानुगतता को ढाल बना कर अन्य का शोषण करता है ,अपमानित करता है या उससे अनुचित लाभ उठाता है। आर्थिक पाखण्ड,अनैतिक आचरण,भावनात्मक शोषण पर पक्षपात का विरोध आदि प्रेमचंद की कहानियों में प्रचुर मात्रा में है।उन्होंने जिस पीड़ित वर्ग के यथार्थ को चित्रित कर उसका पक्ष लिया उसमें आज के अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के अतिरिक्त विधवा, वृद्ध-वृद्धा, नारी,वेश्या,किसान,मजदूर ,कलाकार ...सभी शामिल है। उनके साहित्य का मुख्य उद्देश्य एक ओर लघुत्व में निहित महानता का उद्घाटन और तथाकथित बडप्पन के ढोंग का पर्दाफाश करना है तो दूसरी ओर उन कारणों की खोज करना भी है जिनके कारण यह वर्ग दलित और पीड़ित स्थिति में पहुँचा।
एक विशेष नैतिक समीकरण उनके मस्तिष्क को सदैव मथता रहता था जो उनके साहित्य को दिशा देता था। वे उच्चवर्ग के कठोर आलोचक थे। उनके वाक्यों के ध्वन्यार्थ तीक्ष्ण और गहराई तक मार करने वाले अवश्य हैं परंतु पूर्वाग्रह युक्त नहीं।
प्रेमचंद की कहानियों की विशेषता भी यही थी कि वहाँ कोई न कोई दलित ,पीड़ित अवश्य है। उन्होंने उस वृत्ति का विरोध सदैव किया जो मनुष्यों के बीच दरार पैदा करती है। अन्याय और अत्याचार से दुखित मन ने बौद्धिक रूप से ईश्वर को न्याय और प्रेम की प्रतिष्ठा हेतु नकारा अवश्य है किंतु इस नकार की अपेक्षा वे स्वीकृतियाँ अधिक सच्ची और गहरी है जो उनके उपन्यासों और कहानियों में सात्विकता के उद्रेक के क्षणों में की गयीं हैं। यथार्थ में इस स्वीकार्यता के अभाव में अत्याचार और अन्याय के विरोध का कोई आधार ही नहीं रह जाता।
जहाँ तक अस्पृश्यता का प्रश्न है प्रेमचंद की अनेक कहानियों के पात्र नीच कही जाने वाली जातियों के हैं जिनमें चमार ,भंगी,गौंड आदि प्रमुख हैं।शोषक पक्ष के ढोंग और अहमन्यता का चित्रण उनके कथ्य की पृष्ठभूमि को तैयार करता है।
प्रेमचंद की दलित चेतना कहानियों में व्यंग्यात्मक रूप से उभरती है। उनके अनुसार उच्च वर्ग अस्पृश्यता को अपने स्वार्थ अनुसार लचीला बना लेता है। उच्चवर्ग की दया जूठन खिलाकर स्वयं को धन्य समझती और तृप्त होती है । *दूध के दाम* कहानी का शीर्षक ही व्यंग्यात्मक है। उसी कहानी में धर्म का स्वार्थी ,ढोंगी और शोषक रूप इन शब्दों में उद्घाटित होता है --- *"शास्त्री जी शिखा फटकार कर बोले ---यह सत्य है ,वह कल तक भंगिन का रक्त पीकर पला,माँस खाकर पला यह भी सत्य है ,लेकिन कल की बात कल थी आज की बात आज.......राजा का धर्म अलग,प्रजा का धर्म अलग,गरीब का धर्म अलग। राजेमहाराजे जो चाहे खाएँ,जिसके साथ खाएँ जिसके साथ चाहे शादी ब्याह करें,उनकेलिए कोई बंधन नहीं।"*
प्रेमचंद के हृदय की पीड़ा *पिछड़ी ,अनपढ़ शोषित सभी को कहानी में समान स्थान देती है चाहे मंदिर हो या सद्गति दूध का दाम हो या गरीब की हाय हर कहानी में समाज के उसे सड़े गले हाशिये पर धकेले गए अंग* की व्यथा है जो समाज के लिए जरूरी भी है। जहां मंदिर कहानी अस्पृश्यता के विरुद्ध तीव्र शाब्दिक प्रक्रिया उपस्थित हो समाप्त हो जाती है वहीं गरीब की हाय इस मानसिक अत्याचार के प्रभाव को सबलता से उठाती है। विध्वंस कहानी एक भुनगी गौंड़िन की कहानी है जिसके भाड़ को बार-बार केवल इसलिए ध्वस्त किया जाता है क्योंकि वह जमींदार की बेगार नहीं कर पाती ।
सुखिया मूँगा ,भुनगी जैसे पात्रों की मृत्यु के पीछे अस्पृश्यता और अत्याचार की बेवसी भरी परिस्थितियाँ हैं जो समाज के निम्न, पिछड़े तबको में आज भी देखी जा सकती हैं।
*हमारे दलित कथाकारों ने परंपराओं, रूढ़ियों पर चोट की थी और नये जातिविहीन भारतीय समाज का मॉडल परम्परावादियों से लेकर सनातनियों के सामने प्रस्तुत किया था।* इस हिसाब से अगर देखें तो दलित शब्द का अर्थ हुआ *हिन्दुओं में वे शूद्र जिन्हें अन्य जातियों के समान अधिकार प्राप्त नहीं हैं।*
*दलित साहित्य का उद्भव और विकास* मूलतः मराठी में सबसे पहले सन् साठ के आसपास हुआ था। भारत में सारी सामाजिक गड़बड़ी की जड़वर्ग व्यवस्था है। मराठी के साथ गुजराती,मलयालम, तेलगु तमिल, पंजाबी इत्यादि भाषाओं में भी दलित साहित्य का धीरे धीरे प्रवेश और विकास हुआ।
प्रेमचंद के समकालीन लेखक मानते थे कि जरुरी नहीं कि दलित साहित्य ,दलित ही लिखे। उनके अनुसार प्रेमचंद के अधिकांश लेख,कहानी,उपन्यास आदि दलित समस्याओं और उनके उद्धारों से भरे पड़े हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का कथन इस संबंध में अति महत्वपूर्ण है -- *" प्रेमचंद शताब्दियों से पद-दलित अपमानित और उपेक्षित कृषकों की आवाज थे।पर्दे में कैद पग पग पर लाँछित नारी जाति की महिमा के जबरदस्त वकील थे। गरीबों और बेबसों में प्रचारक थे। यदि आप उत्तरभारत की समस्त जनता के आचार -विचार,भाषा-भाव,रहन-सहन,आशा-आकांक्षा, सुख-दुःख और सूझबूझ जानना चाहते हैं तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकेगा।"*
कठोर या मार्मिक शैली जो अंतःस्थल को हिलाकर रख दे ऐसी शैली प्रेमचंद की कहानियों की विशेषता है। वे स्वयं कहते हैं कि --- *कहानी को हमारे जीवन के किसी अंश पर प्रकाश डालना चाहिये।उसे साहस एवं उत्साह के साथ समाज की बुराईयों की आलोचना करनी चाहिये। उसे मनुष्य की सत्यम् ,शिवम्,सुन्दरम् की प्रवृत्तियों को जागृत करना चाहिये।*
ठाकुर का कुआं ,पूसकी रात, कफन जैसी कहानियां भी अस्पृश्यता सूदखोरी, अत्याचारों धार्मिक भीरुता की परिणति है जिसमें छिपी है ठेठ अकर्मण्यता और हृदय परिवर्तन की कहानी।इन कहानियों में प्रेमचंद ने ग्रामों में रह.रहे दलितों पर अस्पृश्यता के प्रभाव पर भी प्रकाश डाला है तथा इस कहानी के माध्यम से उस समय के भारत का चित्रण किया है जब यहाँ अस्पृश्यता पूरी तरह व्याप्त थी और भारत का पिछड़ापन भी ।अशिक्षा जैसी बीमारी को प्रेमचंद ने पहले ही समझ लिया था। इसी कारण शिक्षा हेतु अपनी कहानियों से शिक्षित वर्ग को जगाना चाहते थे।प्रेमचंद जबकि स्वयं उच्च वर्ग से संबंध रखते थे फिर भी उनका ध्यान शुद्रों की ओर लगा रहता था ।उनके प्रति गहरी सहानुभूति थी इसीलिए उन्होंने उन पर होने वाले अत्याचारों को उजागर किया और उच्च वर्ग के ढकोसलों पर प्रहार किया।
प्रेमचंद पूरी आत्मीयता और संवेदना के साथ ग्रामवासियों के साथ घर में,कुएँ पर ,बाग-बगीचों,खेतों पर मिलकर उनके सुख दुःखमें सहभागी बनते थे। उन्होंने सदैव किसानों,मजदूरों,निर्धनों एवं दलितों के बीच का ही आदमी समझा। इसलिये ये लोग भी अपनी परेशानियों,मजबूरियाँ,पीड़ा बेहिचक ,बेझिझक बता दिया करते थे। और यही आत्मीय बातें उनकी कहानियों एवं उपन्यासों की सामग्री बन जाता ती थीं। तत्कालीन समय ,समाज,राजनीति और धर्म को बहुत बारीकी के साथ समझ कर समस्याओं को अपने साहित्य में उभार कर उनके समाधान भी प्रस्तुत किये हैं।उनकी बहुतेरी कहानियाँ कस्बाई जिंदगी,सत्याग्रह आंदोलन स्कूल कालेज के वातावरण के साथ जमींदारों.साहूकारों क्लर्कों एवं उच्च पदाधिकारियों की समस्याओं और परिवेश की उपज है।
एक तरफ इन दलितों की पीड़ा से उत्पन्न विवशता, आत्महत्या , संवेदनहीनता और अकर्मण्यता का ठेठ यथार्थवादी और विकृत रूप का आलोचनात्मक दृष्टिकोण है वहीं कुछ कहानियों में अत्याचारी के हृदय परिवर्तन की प्रतिक्रिया भी। घास वाली, शूद्रा ,मंत्र जैसी कहानियाँ पिछड़े वर्ग के उन हजारों भारतीयों की कहानी है जिन्हें धोखा देकर अंग्रेज गिरमिटिया बनाकर भारत के बाहर ले गए और विस्थापितों का जीवन जीने के लिए मजबूर किया ।
यद्यपि प्रेमचंद कि दलित चेतना को लेकर आलोचक आरोप लगाते रहे हैं कि उन्हें दलित समाज का वास्तविक ज्ञान नहीं था ।वह चमार टोले का सही चित्रण नहीं कर सके ना दलित वर्ग की दशा के कर्म का वास्तविक चित्रण कर सके। उनका कहना था कि वह सामंतों के मुंशी थे दलितों के पक्षधर नहीं ।इस प्रकार के दुराग्रह से युक्त तत्कालीन लेखक भी थे जो उन पर ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप लगाते थे इसके जवाब में (प्रेमचंद विश्वकोश कमल किशोर गोयनका का में)उन्होंने ब्राह्मण संबंधी परिकल्पना भी प्रस्तुत की।
साहित्यकार के रूप में प्रेमचंद ने पराधीन समाज की व्यवस्थाओं के साथ मन- बुद्धि के विचित्र संघर्ष और समझौते को भी लिखा है। उनका साहित्य आज भी प्रासंगिक है और नैतिक आचरण की प्रेरणा देता है ।समाज को दुर्व्यवस्थाओं से निकलने का मार्ग बताता है। सामंतवादी व्यवस्था की विकृति के साथ उन्होंने जाति व्यवस्था पर भी चोट की है ।उनकी रचनाएं महज माया जाल या कपोल कल्पनाएं नहीं है ।उनके पात्र, समस्याएं समाज से ही उठाये गये है ।भाषा भी हम सब की जानी पहचानी है क्योंकि यह सब तत्कालीन समाज परिवेश के इर्द-गिर्द से ही लिए गए तथ्य हैं। हिंदू- मुस्लिम ,सिख -इसाई, स्त्री- पुरुष, आड़े- पिछड़े ,दलित ..आदि सभी समुदायों के जीवनगत क्रियाकलापों की प्रेमचंद को गहन जानकारी थी तभी उनके साहित्य में ,उनके लेखन में तत्कालीन विसंगतियां पूरी जोर के स्वर के साथ उभरी है जो आज भी दलित चेतना के संबंध में फैली भ्रांतियां का निवारण करने में सक्षम है। मुंशी प्रेमचंद साहित्य जिसमें शामिल है उपन्यास, कहानी ,लघु उपन्यासिका आदि में उन्होंने जहां दलित परिभाषा को विस्तृत रूप से देखा है तो सवणों की नेक नियति को भी अनदेखा नहीं किया ।उनके अनुसार समाज में तालमेल तभी बैठ सकता है जब दलित से संबंधित परिभाषाएं अपने सटीक और सत्य रूप में पहचानी जाए ।दलित मात्र अछूत नहीं है अपितु बलवान के आगे कमजोर भी दलित ही है ।आज दलित की जो परिभाषा विस्तार पा रही है वह एकांगी है इसके पक्षधर प्रेमचंद कभी नहीं रहे ।इस प्रकार आज दलित जब मुख्य धारा में साथ चलने का अधिकार पा चुके हैं तब प्रेमचंद के साहित्य का पुनरावलोकन जरूरी है जिससे वर्तमान में दलित संबंधी भ्रांतियां अपनी जड़ें ना जमा सके साथ ही स्वर्ण भी अपना स्थान कायम रख सके।
प्रेमचंद की आरंभिक कहानियों में किस्सागोई, आदर्शवाद और सोद्देश्यता की मात्रा अधिक है। व्यावहारिक मनोविज्ञान कापुट देकर मानव चरित्र कज सूक्ष्म उद्घाटन की क्षमता के फलस्वरूप उन्होंने.अपनी कहानियों को विशिष्ट बना दिया है।बहुधा उनका आदर्शवादी दृष्टिकोण परंपरागत मूल्यों में उनकी आस्था और इच्छित विश्वास ,अंधविश्वास उनकी कहानियों पर हावी भी रहेपर अपनी इस कमजोरी को शीघ्र ही समझ कर स्वयं दूर भी कर लिया। यह सुधार *बूढ़ी काकी,शतरंज के खिलाड़ी,कजाकी और इस्तीफा* जैसी कहानियों में देखा जा सकता है।
प्रेमचंद के पूर्व कथा साहित्य में या तो अजीबोगरीब घटनाओं के द्वारा कुतूहल और चमत्कार की सृष्टि रहती थी या फिर आर्यसमाज और अन्य सामाजिक आंदोलनों से प्रभावित समाज सुधारों का प्रचार ही उसकी उपलब्धि रह गयी थी।
*प्रेमचंद साहित्य में दलित चेतना के अलावा राष्ट्रीय स्वर,सामाजिक समस्याओं यथा पराधीनता, सरकारी कर्मचारियों द्वारा किसानों,गरीबों का शोषण,निर्धनता ,वृद्ध विवाह ,विधवा समस्या ,साम्प्रदायिक वैमनस्य,मध्यम वर्ग की कुण्ठाएं आदि भी मुखर स्वर थे।*
कहानियों की तरह उनके उपन्यास भी विविध समस्याओं से रचे पगे थे जैसे सेवासदन में वैवाहिक समस्याएं यथा तिलक-दहेज प्रथा,कुलीनता का प्रश्न,विवाह के बाद पत्नी का घर में स्थान आदि तो *निर्मला* वृद्ध विवाह से होने वाले पारिवारिक विघटन और विनाश पर रोशनी डालता है। कृषक जीवन की समस्याओं का प्रयास *प्रेमाश्रम* में लक्षित हुआ और पूर्णता हुई *गोदान में* ।
ग्राम्यजीवन और कृषि संस्कृति का इतना सच्चा व्यापक और प्रभावशाली चित्रण साहित्य की दुनियाँ में बेजोड़ है। इस उपन्यास में अन्तरजातीय विवाह के प्रश्न को भी उठाया गया है।
मध्यम वर्ग की कुण्ठाओं का सबसे बेहतरीन चित्रण *गबन* और *निर्मला* में है।
समाज में हरिजनों की स्थिति और उनकी समस्याओं के लिए *कर्मभूमि* को पढ़ना श्रेष्ठ चुनाव होगा। बड़े पैमाने पर फैलनेवाले उद्योगधंधों के.फलस्वरूप ग्रामीण जीवन और पुराने मूल्यों का विघटन तथा पूंजीवाद का बढ़ता प्रभाव *रंगभूमि* की विषय वस्तु है।
अपनी मानवतावादी दृष्टि के कारण भी देश की साम्प्रदायिक समस्या प्रेमचंद की चिन्ता का मुख्य विषय था।
सहज सामान्य मानवीय व्यापारों को मनोवैज्ञानिक स्थितियों से जोड़कर तीव्र मानवीय रुचि पैदा करना प्रेमचंद से सीखने की आवश्यकता है। विविध सामाजिक समस्याओं को कथानक या विषय बनाने के बावजूद जीवन की सहज धारा को महत्व देना हर किसी के. की बात नहीं। जहाँसमस्या और आदर्शवादी समाधान का महत्व कम हुआ तो जीवन की ताजगी और यथार्थता का स्वर प्रमुख होकर मुखर हो गया। विशेषतः सामान्य जिंदगी के ये ब्यौरे मनोवैज्ञानिक स्थितियों से संकलित है जिनकी पृष्ठभूमि में जीवन.का गहरा और व्यापक अनुभव तथा तीव्र संवेदना विद्यमान है।
नगरीय जीवन की विशेषताओं जैसे कोलाहल ,दौड़धूप,तंगी,भीड़,घुटन,बेकारी,होटल,रेस्तरां, शुष्क औपचारिकता ,भयानक जीवन संघर्ष आदि का प्रामाणिक चित्रण उनके साहित्य में मुख्य स्थान नहीं पा सका जितना शोषक वर्ग,। जमींदार वर्ग के प्रति उनकी विशेष सहानुभूति उन्हें संतुलित दृष्टि संपन्न सामाजिक आलोचक सिद्ध करती है। क्यों कि तत्कालीन जमींदार एक और किसानों का शोषण करते थे तो दूसरी और बैंकरों,दलालों और अंग्रेजी सरकार द्वारा शोषित भी होते थे। तत्कालीन सामंती ढांचा भव्य और डरावना होने पर भी भीतर से बिल्कुल खोखला था जिसे प्रेमचंद की अनुभवी दृष्टि देख चुकी थी। प्रगतिवाद या साम्यवाद के प्रति दुराग्रही लेखकों की दृष्टि इस खोखलेपन की ओर जा नहीं सकी। प्रेमचंद की सूक्ष्म अवलोकन क्षमता ने न केवल लक्षित किया अपितु सहानुभूति के साथ प्रस्तुत भी किया।
अफ़सोस रहा प्रेमचंद को कि ताजिंदगी राष्ट्रप्रेमी व देशभक्त होने के बावजूद राष्ट्रीय भावना को सशक्त अभिव्यक्ति न दे सके। आलोचना के भय से समाजसुधार की दिशा में भी चाहते हुये क्रांतिकारी कदम न उठा सके।
अंत में यह कहना समीचीन होगा कि प्रेमचंद ने आगत भविष्य का सटीक अनुमान लगाया था औरसाहित्य में स्थान दिया था । उनका साहित्य वर्तमान में भी प्रासंगिक है। उनके साहित्य पर जितना लिखा जाये ,कम ही है।
मनोरमा जैन पाखी
मेहगाँव, जिला भिण्ड
मध्यप्रदेश
Sushi saxena
14-Feb-2024 06:20 PM
V nice
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Pakhi Jain
14-Feb-2024 06:53 PM
Thanks sushi saxena ji ☺️😊
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Gunjan Kamal
13-Feb-2024 09:20 PM
👌👏
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Pakhi Jain
14-Feb-2024 06:54 PM
Gunjan kamal ji aabhar
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Mohammed urooj khan
13-Feb-2024 01:33 PM
👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾
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Pakhi Jain
14-Feb-2024 06:54 PM
धन्यवाद उरूज खान सर जी
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