Add To collaction

अष्टावक्र गीता-दोहे -15

*अष्टावक्र गीता*-15
स्वांत वात-बल पोत जग,फिरे सतत चहुँ-ओर।
महा सिंधु मम रूप में,कहे जनक, बिन शोर।।

उदित-अस्त होतीं स्वयं,माया-विश्व-तरंग।
लाभ-हानि बिन सिंधु मैं, उमड़ूँ लिए उमंग।।

मुझ अनंत इस सिंधु में,जग है कल्पित रूप।
निराकार स्थित सतत,मैं नित शांत अनूप ।।

बिन 'मैं' भाव अनंत मैं, रहूँ वहीं निष्काम।
रूप निरंजन शक्ति बिन,करूँ शांत विश्राम।।

अहा!शुद्ध-चैतन्य मैं, जग असत्य,भ्रम-जाल।
भले-बुरे की कल्पना,संभव नहीं बवाल ।।
               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                   9919446372

   10
2 Comments

Gunjan Kamal

01-Mar-2024 11:44 PM

शानदार

Reply

Mohammed urooj khan

29-Feb-2024 03:40 PM

👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾

Reply