कवि बिहारी
सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगै, घाव करें गंभीर।।
इस दोहे के माध्यम से कवि बिहारी जी ने कम शब्दों में बड़ी बात कह दी है, यानि उन्होंने ‘गागर में सागर’ भरने का काम किया है। उनके दोहे भाव से भरे हैं, और बात की गंभीरता को सरल शब्दों में व्यक्त कर जाते हैं।
बिहारी जी का जन्म बसुआ, जिसे गोविंदपुर गांव के नाम से भी जाना जाता है, ग्वालियर के करीब हुआ।
पंडित केशव राय चौबे उनके परिवार के कुलपिता का नाम था। बचपन के दौरान ही वे अपने पिता के साथ ग्वालियर से ओरछा नगर आ गये।
यहीं पर उन्हें आचार्य केशवदास द्वारा कविता की कला सिखाई गई थी, और यहीं पर वे कविता लिखने में सक्षम हुए।
इनका सही नाम है माथुर चौबे था। बुन्देलखण्ड वह स्थान है जहाँ उन्होंने अपना बचपन बिताया। जब छोटे थे तो वह मथुरा में अपने ससुराल के घर में रहने लगे।
हालाँकि, इस तथ्य के बावजूद कि बिहारी जी को अपने जीवन में अन्य कवियों की तुलना में अधिक कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, वे कविता के रूप में हिंदी साहित्य के क्षेत्र को एक अमूल्य मोती प्रदान करने में सक्षम थे।
राजा जयसिंह को आश्रित कवि माना जाता है। कविवर बिहारी, मिर्जा राजा जयसिंह के दरबारी कवि थे, जो जयपुर के राजा थे।
ऐसा कहा जाता है कि जय सिंह, जो नई रानी के प्यार में थे, प्रशासन के प्रति अपने कर्तव्य को भूल गए। बिहारी ने एक दोहा लिखकर जयसिंह को दे दिया।
‘नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं बिकासु इहिं काल।
अली कली ही सौं बंध्यौ, आगैं कौन हवाल॥’
अर्थात- नायिका में आसक्त नायक को शिक्षा देते हुए कवि कहता है कि न तो अभी इस कली में पराग ही आया है, न मधुर मकरंद ही तथा न अभी इसके विकास का क्षण ही आया है। अरे भौरे! अभी तो यह एक कली मात्र है। तुम अभी से इसके मोह में अंधे बन रहे हो। जब यह कली फूल बनकर पराग तथा मकरंद से युक्त होगी, उस समय तुम्हारी क्या दशा होगी? अर्थात् जब नायिका यौवन संपन्न सरसता से प्रफुल्लित हो जाएगी, तब नायक की क्या दशा होगी? तुम रानी के मोह में रहोगे तो राज्य का क्या होगा, इसे कौन देखेगा।
इसके परिणामस्वरूप, वह एक बार फिर सरकार की गतिविधियों में रुचि लेने लगे और शाही दरबार में पहुँचकर उन्होंने बिहारी का सम्मान भी किया।
बिहारी लाल का नाम हिन्दी साहित्य के रीति काल के कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। बिहारी लाल की एकमात्र रचना 'बिहारी सतसई' है। यह मुक्तक काव्य है।
हिंदी साहित्य में 'सतसई' शब्द से प्रायः सात सौ दोहे ही समझे जाते हैं। जैसे- ’बिहारी सतसई’।
इसमें 713 से 719 दोहे संकलित हैं, 405 छंद हैं।
इसमें नीति, भक्ति और श्रृंगार से संबंधित दोहों का संकलन है। यह ब्रज भाषा का काव्य ग्रन्थ है।
बिहारी ने केवल दो ही छंद अपनाए हैं, दोहा और सोरठा। दोहा छंद की प्रधानता है। बिहारी के दोहे समास-शैली के उत्कृष्ट नमूने हैं।
बिहारी सतसई' में शृंगार, प्रेम, नीति, भक्ति, ज्योतिष और सौंदर्य की सुंदर - प्रौढ़ अभिव्यक्ति है।
भाषा की समाहार शक्ति की यह अद्भुत कृति है। दोहा जैसे लघु छंद में बिहारी ने लोक और शास्त्र, प्रेम और सौंदर्य, भक्ति और नीति का विरल संयोग किया है।
बिहारी जी के कुछ सर्वश्रेष्ठ दोहे-
1- मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँई परैं, स्यामु हरित-दुति होइ॥
अर्थात- बिहारी राधिका जी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे चतुर राधिके! तुम मेरी इस संसार/रूपी बाधाओं को दूर करो अर्थात तुम भक्तों के कष्टों का निवारण करने में परम चतुर हो, इसलिए मुझे इन संसार के कष्टों से मुक्ति दिलाओ।
जिसके तन की परछाई पड़ने से श्री कृष्ण के शरीर की नीलिमा हरे रंग में परिवर्तित हो जाती है अर्थात श्रीकृष्ण भी प्रसन्न हो जाते हैं, जिनके शरीर की परछाई पड़ने से हृदय प्रकाशमान हो उठता है। उसके सारे अज्ञान का अंधकार दूर हो जाता है ऐसी चतुर राधा मेरी सांसारिक बाधाओं को दूर करे।
2- बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै भौंहनु हँसै, दैन कहै नटि जाइ॥
अर्थात- गोपियाँ अपने परम प्रिय कृष्ण से बातें करने का अवसर खोजती रहती हैं। इसी बतरस (बातों के आनंद) को पाने के प्रयास में उन्होंने कृष्ण की वंशी को छिपा दिया। कृष्ण वंशी के खो जाने पर बड़े व्याकुल हैं।
वे गोपियों से वंशी के बारे में पूछते हैं तो गोपियाँ (झूठी) सौगंध खाकर कहती हैं कि उन्हें वंशी के बारे में कुछ पता नहीं। साथ ही वे भौंहों के संकेतों में मुस्कुराती भी जाती हैं कृष्ण को लगता है कि वंशी इन्हीं के पास है।
किन्तु जब वह वंशी लौटाने को कहते हैं तो गोपियाँ साफ मना कर देती हैं।
3- पाइ महावरु दैंन कौं नाइनि बैठी आइ।
फिरि फिरि जानि महावरी, एड़ी मीड़ति जाइ॥
अर्थात- नाइन नायिका के महावर लगाने के लिए आई है। नायिका के समक्ष बैठ जाती है। नाइन महावरी अर्थात् लाल रंग से सराबोर कपड़ा कहीं रखकर भूल जाती है और भ्रम से नायिका की एड़ी को ही महावरी समझ बैठती है, क्योंकि नायिका की एड़ी इतनी कोमल और लाल है कि नाइन को भ्रम हो जाता है और परिणाम स्वरूप वह बार-बार नायिका की एड़ियों को मींड़ती जाती है।
4- पिय−बिछुरन कौ दुसहु दुखु, हुरषु जात प्यौसार।
दुरजोधन लौं देखयति तजत प्रान इहि बार॥
अर्थात- एक नायिका अपनी ससुराल से अपने पीहर जा रही है। एक ओर तो उसे अपने पिता के घर जाने का सुख है तो दूसरी ओर अपने प्रियतम के बिछोह का दुःख भी है। कवि बिहारी ने नायिका की इस सुख-दुःखमय मनोस्थिति की समानता दुर्योधन के अंतकाल से की है।
बिहारी कह रहे हैं कि पीहर जाती हुई नायिका को पीहर जाने का तो हर्ष है पर अपने प्रियतम से बिछुड़ने का दुःख हो रहा है। इस प्रकार जाते समय उस नायिका की वही स्थिति है जो दुर्योधन की प्राणांत होते समय थी।
5- खरी पातरी कान की, कौन बहाऊ बानि।
आक-कलीन रली करै अली, अली, जिय जानि॥
अर्थात- हे सखी, तू कान की बड़ी पतली अर्थात् कच्ची है। पता नहीं, तुझमें कौन-सी बुरी आदत है कि तू बिना विचार किए सबकी बातों पर यों ही विश्वास कर लेती है। मैं तुझे समझाते हुए कहना चाहती हूँ कि तू मेरी बात को निश्चित रूप से सत्य मान ले कि भ्रमर किसी भी स्थिति में आक की कली से विहार नहीं कर सकता। अर्थात तुम्हारा प्रेयस किसी अन्य स्त्री का संसर्ग कभी नहीं कर सकता।
6- संपति केस, सुदेस नर नवत, दुहुति इक बानि।
विभव सतर कुच, नीच नर, नरम विभव की हानि॥
अर्थात- केश और श्रेष्ठ पद वाले व्यक्ति संपत्ति के कारण नम्र हो जाते हैं या झुकने लगते हैं, किंतु उरोज और नीच नर वैभवहीन होने पर ही झुकते हैं।
कवि कह रहा है कि केश-वृद्धि प्राप्त करके झुकने लगते हैं। यही स्थिति अच्छे पद पर स्थित सत्पुरुषों की होती है। सत्पुरुष भी अच्छा पद प्राप्त करके या समृद्धि प्राप्त करके झुकने लगते हैं।
नीच लोगों की स्थिति इसके विपरीत होती है। कुच और नीच मनुष्य वैभवहीन होकर ही झुकते हैं।
उरोज यौवन का वैभव पाकर कठोर हो जाते हैं, किंतु वैभवहीन होते ही अर्थात् यौवन समाप्त होते होती ही वे शिथिल हो जाते हैं। यही स्थिति नीच मनुष्यों की होती है। वे ऐश्वर्य पाकर तो कठोर होते हैं, किंतु ऐश्वर्यहीन होकर विनम्रता धारण कर लेते हैं।
7- तंत्री नाद, कबित्त रस, सरस राग, रति-रंग।
अनबूड़े बूड़े, तरे जे बूड़े सब अंग॥
अर्थात- वीणा आदि वाद्यों के स्वर, काव्य आदि ललित कलाओं की रसानुभूति तथा प्रेम के रस में जो व्यक्ति सर्वांग डूब गए हैं, वे ही इस संसार-सागर को पार कर सकते हैं। जो इनमें डूब नहीं सके हैं, वे इस भव-सिंधु में ही फँसकर रह जाते हैं अर्थात् संसार-का संतरण नहीं कर पाते हैं।
कवि का तात्पर्य यह है कि तंत्री-नाद इत्यादि ऐसे पदार्थ हैं जिनमें बिना पूरण रीति से प्रविष्ट हुए कोई भी आनंद नहीं मिल पाता है। यदि इनमें पड़ना हो तो पूर्णतया पड़ो। यदि पूरी तरह नहीं पड़ सकते हो तो इनसे सर्वथा दूर रहना ही उचित व श्रेयस्कर है।
8- कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।
नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।।
अर्थात- कोई कितना भी प्रयत्न करे किन्तु मनुष्य के स्वभाव में अन्तर नहीं आता। नल के बल से पानी ऊपर तो चढ़ जाता है किन्तु फिर भी अपने स्वभाव के अनुसार नीचे ही बहता है।
9- करि फुलेल कौ आचमन मीठौ कहत सराहि।
रे गंधी मति-अंध तूँ अतर दिखावत काहि॥
अर्थात- मूर्ख लोगों पर कटाक्ष करते हुए बिहारी जी कहते हैं, कि जो फुलेल का आचमन कर उसे सराहता और मीठा कहता है! रे बेवकूफ इत्रफरोश, तू यहाँ किसको इत्र दिखा रहा है? वह तो यह भी नहीं जानता कि फुलेल लगाने की चीज है या पीने की, फिर यह इत्र की कद्र क्या जानेगा?
10- जप माला छापैं तिलक सरै न एकौ कामु।
मन काँचै नाचै बृथा साँचै राँचै रामु॥
अर्थात- इस दोहे में बिहारी लाल जी ने अध्यात्मिक कर्मकांड के विषय में कटाक्ष किया है। कवि के मतानुसार ढोंग अथवा आडंबर से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि मन कांच के भांति होता है जिसे भंगुर होने में क्षण भर का समय भी नही लगता। माला जपने, माथे पर तिलक लगाने अथवा हजारों बार राम का नाम लेने से कष्ट नहीं कटते हैं। अगर सच्ची आस्था से परमेश्व का जतन किया जाए तो वह सही मायने में सार्थक कहलाएगा।
11- कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।
या खाए बौराए जग, वा पाए बौराय।।।
अर्थात- बिहारी लाल जी कहते है, कि संपत्ति का नशा धतूरे के नशे से भी सौ गुना ज्यादा होता है, जो मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट कर देता है। अर्थात कनक अथवा धतूरा खाने के पश्चात लोग बावले हो जाते हैं लेकिन कनक अर्थात सोने को सिर्फ प्राप्त करके ही लोग लालच के कारण बावले हो जाते हैं। यहां कनक शब्द के दो अर्थ होते है धतूरा और स्वर्ण।
12- बड़े न हूजे गुणन बिनु, विरद बड़ाई पाय।
क़हत धतूरे सो कनक, गहनो गढ्यो न जायँ।।
अर्थात- बिहारी लाल जी कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति बिना गुण के केवल नाम के सहारे बड़ा नहीं बन सकता, ठीक वैसे ही जिस प्रकार धतूरे को भी कनक कहा जाता है लेकिन उससे आभूषण नहीं बनाया जा सकता।
13- जगत जनायो जिन सकल, सो हरि जान्यो नाहि।
ज्यों आंखन जग देखिए, आंख न देखी जाहि।।
अर्थात- बिहारी लाल जी परम ब्रह्मा की ओर संकेत करते हुए कहते हैं, कि जिन्होंने यह पूरा संसार बनाया है वह किसी को भी दिखाई नहीं देते, जिस प्रकार हम नेत्रों से पूरा संसार तो देख सकते हैं लेकिन स्वयं अपने नेत्रों को नहीं देख सकते हैं।
14- स्वारथु सुकृतु न, श्रमु वृथा, देखि विहंग विचारि।
बाज पराये पानि परि, तू पंछीनु न मारि ।।
अर्थात- बिहारी लाल जी अपनी रचना में मुगल बादशाह शाहजहां के साथ मित्रता करके हिन्दुओं से लड़ने वाले हिंदू राजा जयसिंह के विषय में कहते हैं कि हे बाज़! दुश्मनों के साथ मिलकर अपनों के पीठ में खंजर भौंकने से तुम्हे कुछ नही प्राप्त होगा। तुम व्यर्थ ही दूसरों के अहम को संतुष्ट करने के लिए अपने ही पक्षियों को मत मारो।
15- मीत न नीति गलीतु ह्वै, जौ धरियैं धनु जोरि।
खाऐं खरचैं जौ जुरै, तौ जोरियै करोरि॥
अर्थात- हे मित्र, यह उचित नहीं है कि गल-पचकर-अत्यन्त दुःख सहकर-धन इकट्ठा कर रखिए। (हाँ, अच्छी तरह) खाने और खरचने पर जो इकट्ठा हो सके, तो करोड़ों रुपये जोड़िए-इकट्ठा कीजिए।
15- नहिं पावस रितुराज यह, तज तरुवर मति भूल।
अपतभये बिन पाय हैं, क्यों न बदल फल फूल।।
अर्थात- बिहारी लाल जी एक वृक्ष का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि हे वृक्ष जब तक तुम अपने पुराने पत्तों को नहीं त्यागोगे तब तक कोई नए फूल और फल नहीं प्राप्त होंगे, क्योंकि यह वर्षा ऋतु नहीं बल्कि वसंत ऋतु है। अर्थात बिना त्याग और बलिदान के इस धरती पर कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता है।
16- मरत प्यास पिँजरा परयो, सुआ समय के फेर।
आदर दै दै बोलियत, बायस बलि की बेर।।
अर्थात- समय के फेर से (भाग्य-चक्र के प्रभाव से) सुग्गा पिंजड़े में पड़ा प्यासा मर रहा है, और (श्राद्ध-पक्ष होने के कारण) बलि देने के समय काग को आदर के साथ बुला रहे हैं। पिंजरे में कैद सुग्गे का प्यासा मरना और स्वच्छन्द कौवे का सादर भोजनार्थ बुलाया जाना-सचमुच किस्मत का खेल है।
17- दिन दस आदर पायके, करले आप बखान।
ज्यों लगि काक सराधपख, त्यों लगि तव सन्मान।।
अर्थात- श्राद्ध पक्ष में पूजे जाने वाले कौवे के विषय में बिहारी लाल जी कहते हैं कि थोड़े समय के लिए सम्मान और आदर पाकर हे कौवे तुम्हें अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि तुम्हें सम्मान तभी तक मिलेगा जब तक श्राद्ध पक्ष है। अर्थात थोड़ा मान सम्मान और प्रभुता पाकर घमंड कभी नहीं करना चाहिए।
18- कब कौ टेरतु दीन रट, होत न स्याम सहाइ।
तुमहूँ लागी जगत-गुरु, जग नाइक, जग बाइ।।
अर्थात- ईश्वर के दर्शन ना पाने के कारण बिहारी लाल जी रुष्ट होकर कहते हैं कि हे प्रभु! मैं आपके दर्शन पाने के लिए कितने समय से प्रतीक्षा कर रहा हूं, लेकिन आप हैं कि मेरी सहायता ही नहीं करते। हे जगत के स्वामी! परम ब्रह्म! मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आप को भी इस स्वार्थी दुनिया की विषैली हवा लग गई है अर्थात आप भी इस संसार की भांति ही अभिमानी हो गए हैं जो आपने मुझ दुखियारे को अब तक अपने दर्शन नहीं दिए।
बिहारी की कविता मुक्तक परंपरा में लिखी गई थी। ‘दोहा’ एक छोटा काव्य रूप है जिसमें अड़तालीस छंद हैं, और उन्होंने इसका उपयोग अपनी कविता के लिए किया।
बिहारी के दोहों में मुक्तक शैली में जो तत्व होने चाहिए वे अपनी पूर्णता के शिखर को प्राप्त कर चुके हैं। वे जिस विषय पर लिखते थे, उसके अनुरूप ही बिहारी शैली अपनाते थे।
उनका तरीका उनकी सभी भावनाओं को एक ऐसे तरीके से व्यक्त करने में पूरी तरह से सफल है जो ज्वलंत और समझने में आसान दोनों है। इसी कारण उनकी ‘सतसई’ का एक-एक दोहा एक अनमोल रत्न के समान है, जिसे कवि ने जौहरी की तरह सावधानी से चुनकर अपने काव्य में शामिल किया है।
ऐसे कई कवि थे जो बिहारी के नक्शेकदम पर चले, लेकिन उनमें से कोई भी समान स्तर की सफलता हासिल नहीं कर सका। आत्मसात करने की इतनी क्षमता रखने वाला कोई दूसरा हिंदी कवि मिलना संभव नहीं है।
स्वरचित-सरिता श्रीवास्तव "श्री"
धौलपुर (राजस्थान)
hema mohril
05-Mar-2024 09:57 AM
V nice
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Varsha_Upadhyay
02-Mar-2024 06:55 PM
Nice
Reply
Mohammed urooj khan
02-Mar-2024 12:15 PM
👌🏾👌🏾👌🏾
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