Dr. Neelam

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भूख

*भूख*
  *देह नारी की*

  बचपन में भूख
जब पेट में
कुलबुलाती थी
माँ पीठ थपथपा
पेट को सुलाती थी,
थी बेटी
भूखी निगाहों से
बचाती थी
माँ फटे आँचल में
भी बेटी का सर
छुपाती थी।

आँसू बनकर लकीर
ठिठक जाते थे
गालों पर
ख्वाब में रोटियों
की महक आती थी
भोर का सूरज
फिर अलाव बन
दहकता था
माँ भीगे शब्दों का
आँचल उड़ा
भूख की आग 
बुझाती थी।

बड़ी हुई कुछ
तो भूख का कारण
समझ आने लगा
हाथ अनायास
भीख की दिशा में
उठने लगे
माँ भी थामकर
अँगूली किसी चौराहे
पर खड़ी होती थी
अर्धनग्न जिस्म पर
फिसलती भूखी आँखे
सहती थी।

भूख आखिर भूख
होती है
जिल्लत क्या,
इज्जत क्या भूला
देती है
हो नर तो फिर भी
कई रास्ते बन जाते हैं
मादा हो तो
भूख मजबूरन जिस्म
बन बाजार बन
जाती है।

देह नारी की
भूख की तलाश में
फिर भूख बन जाती हैं
भूखी निगाहों में
गरम मांस का टुकड़ा
बन जाती हैं,
घर का सपना 
जलता अलाव हो
जाता है
जिसमें पकते ख्वाब-सी
महकती रोटियाँ
हो जाती हैं।

बीतती उमर के साथ
बासी रोटी-सी
कूढ़े में फेंकी जाती हैं
कभी-कभार
मैले,खुजैले श्वानों के
हाथों भक्षण का
शिकार हो जाती हैं
देह नारी की
भूख से कम नहीं
होती है।

       डा.नीलम

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6 Comments

Gunjan Kamal

13-Mar-2024 08:38 PM

बहुत खूब

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Mohammed urooj khan

13-Mar-2024 03:55 PM

👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾

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Punam verma

12-Mar-2024 09:21 AM

Nice👍

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