सोच
छोड़ आए हम शहर जलता हुआ
जो नफरतों से भरा हुआ था,
जहां हर चीज़ महंगी थी,
पर आदमी का खून सस्ता था।
हर तरफ ऊंची ऊंची इमारतें,
आदमी सड़क पर तड़पता हुआ,
छोड़ आए उसे मरता हुआ।
ख्वाइशो का बोझ ढोते रहें हम वहां
किसी को किसी से कोई मतलब नहीं था यहां।
भागते रहे हम जिंदगी के पीछे
पर मिला कुछ नही जो हमने सोचा था
ठोकरे खाई मिली मंजिल,
चर्चा सरे आम हुआ।
आंधियों का डर सताता है हमें
इसलिए बुझते दीए जलाएं हमने।
छोड़ आए उस शहर को जो जल रहा है।
संजय भास्कर
14-Apr-2021 03:25 PM
बहुत ही बेहतरीन रचना
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Satesh Dev Pandey
27-Mar-2021 08:41 AM
बहुत सुन्दर
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