Sadhana Shahi

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अभ्यास सफ़लता की कुंजी है (कहानी) प्रतियोगिता हेतु26-Mar-2024

दिनांक- 26,0 3, 2024 दिवस- मंगलवार प्रदत्त विषय- अभ्यास सफ़लता की कुंजी है (कहानी) प्रतियोगिता हेतु

पाठ प्रवेश - यह बात सौ फ़ीसदी सत्य है कि दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति सफ़लता का स्वाद चखना चाहता है। किंतु सफ़लता की यात्रा इतनी आसान नहीं होती,इसे पाने में हमें कई असफलताओं का भी सामना करना पड़ता है। हमें असफलताओं से बिना हार माने अपना लक्ष्य पूरा होने तक बार-बार ख़ुद को प्रेरित कर अनवरत अभ्यास की आवश्यकता होती है। अनवरत अभ्यास ही वह मूल मंत्र है जो हमें अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करने में मदद करता है। कुछ सकारात्मक विचार और ऊर्जा के साथ बार-बार प्रयास करने की कला ही वह सबक जो हमें प्रकांड विद्वान बोपपदेव से सीखने को मिलती है।बोपदेव की कहानी अभ्यास का एक बड़ा उदहारण है, जिन्होंने अनवरत अभ्यास के दम पर ही अपनी सफ़लता को साबित किया। इस कहानी के द्वारा मैंने सफ़लता के वास्तविक अर्थ और हमारे जीवन में सफ़लता के महत्त्व से आपको अवगत कराने की कोशिश की है। तो आईए जानते हैं प्रकांड विद्वान बोपदेव की कहानी जो प्रारंभ में जड़ बुद्धि कहे जाते थे किंतु अभ्यास के दम पर उन्होंने सफ़लता अर्जित किया और संस्कृत के प्रसिद्ध वैयाकरणाचार्य के रूप में ख्याति अर्जित किये।उनकी संस्कृत व्याकरण की एक प्रसिद्ध कृति ‘मुग्धबोध’ है, जिसे संस्कृत व्याकरण का मानक ग्रंथ माना जाता है।

बड़ा जो बनना चाहते, छोटा करो न कोय। कर लो अपने को बड़ा, दूजा खुद ही छोटा होय।।

कुछ ऐसे ही वह देव ने किया।आज हम जिधर नज़र दौड़ाते हैं बड़ा बनने की होड़ सी दिखाई पड़ती है। किंतु हममें से बहुत ही कम लोग हैं जो कठिन परिश्रम करके बड़ा बनना चाहते हैं। ज़्यादातर लोग आसान राहों पर चलकर या दूसरों को नीचा करके बड़े बनने के पक्षपाती होते हैं। जबकि बड़ा बनने का यह तरीका बिल्कुल भी सही नहीं है। हमें चाहिए कि, अनवरत प्रयास कर दूसरों को छोटा करने की वजाय खुद को बड़ा कर लें जिस तरह बोपदेव ने किया।

संस्कृत साहित्य में बोपदेव वह नाम है जिसे शायद ही कोई संस्कृत मर्मज्ञ न जानता हो, जिसके ज्ञान के आगे वह नतमस्तक न हो। संस्कृत के प्रकांड विद्वान बोपदेव की बचपन में स्मरणशक्ति बड़ी ही कमज़ोर थी। वे लाख परिश्रम कर लें किंतु संस्कृत के छोटे-छोटे सूत्र भी याद नहीं कर पाते थे, जिसके कारण उन्हें अपने सहपाठियों के मध्य सदैव शर्मिंदा होना पड़ता था। उनके संगी- साथी उन्हें सदा मंद-बुद्धि, जड़ कहकर चिढ़ाते थे। अपने संगी-साथी के इस तरह के व्यवहार से ऊबकर एक दिन वो गुरुकुल छोड़कर भाग गए। क्योंकि उन्हें लगने लगा था शिक्षार्जन उनके बस की बात नहीं। चलते-चलते जब वे थक गए और उन्हें बड़ी तेज़ की प्यास लगी,तब एक कुएँ की जगत पर पानी पीने के लिए गए। वहांँ पर पनिहारिनें पानी भर रही थीं। वो एक पनिहारिन से पानी मांँगे, उसने पानी पिलाया बोपदेव पानी पीकर संतुष्ट हो गए। चूँकि बोपदेव लगातार दौड़ते हुए आए थे, अतः थक गए थे। और अपनी थकान मिटाने के लिए कुएँ की जगत पर बैठ गए। अचानक उनकी नज़र कुएंँ की मुंडेर पर पड़ी। उन्होंने देखा जहांँ पनिहारिनें रस्सियों से खींचकर पानी भरती थीं, वहांँ गहरे-गहरे निशान पड़े हुए थे। इसके अतिरिक्त जहांँ पर पनिहारिनें पानी भरकर अपना मटका रखती थीं, वहांँ का पत्थर भी घिसते-घिसते गड्ढा हो गया था।

पत्थर पर पड़े निशान को देखकर वो विचार करने लगे कि यदि यह मुलायम सी रस्सी और कमज़ोर सा मटका पत्थर को घिसकर गड्ढा बना सकता है तो क्या बार-बार अभ्यास करके,कठोर परिश्रम करके मैं संस्कृत के सूत्रों को याद नहीं कर सकता हूंँ! निश्चित रूप से कर सकता हूँ। फिर अपने ही अंतर्मन में विचार करने लगे,नहीं मैं कर सकता हूँ। मैं ज़रूर कर सकता हूंँ, और मैं करूंँगा‌ मैं एक दिन मैं बहुत बड़ा विद्वान बनकर दिखाऊंँगा।

वो मेरे मित्र, मेरे संगी-साथी जो मुझे मंद-बुद्धि कहकर चिढ़ाते हैं, वो देखेंगे कि वही मंद-बुद्धि बालक आज एक विद्वान बन गया है। यह विचार करते हुए उन्होंने स्वयं से यह वादा किया कि, मैं आज के बाद कठोर परिश्रम करूंँगा, अनवरत अभ्यास करूंँ गाऔर एक दिन एक बहुत बड़ा विद्वान बन कर दुनिया को दिखाऊंँगा।

इस तरह का विचार कर और मन में दृढ़ संकल्प कर एक नए जोश, उमंग, उत्साह और हौसले के साथ बोपदेव उठे और वो घर जाने की वजाय गुरुकुल की ओर चल पड़े। गुरुकुल पहुंँचने के पश्चात वो अपने मित्रों की उपेक्षा की चिंता किए बिना दिन-रात कठोर परिश्रम और अभ्यास कर अध्ययनरत हो गए। जैसे ही वो परिश्रमरत और अभ्यासरत हुये शुभ परिणाम भी शीघ्र ही दिखने लगा। उनके अंदर सकारात्मकता का संचार होते ही जो व्याकरण के सूत्र वो पूरे-पूरे दिन याद करने पर भी नहीं याद कर पाते थे, वही सूत्र अब कुछ मिनटों में ही याद होने लगे।

उनका परिश्रम रंग लाया जब वार्षिक परीक्षा के पश्चात परिणाम निकला तो वे गुरुकुल में सर्वोच्च अंक प्राप्त किए।परिणाम स्वरूप गुरुकुल में उन्हें उच्च स्थान प्राप्त हुआ।

आगे चलकर यही मंदबुद्धि कहे जाने वाले बोपदेव अपनी प्रतिभा के दम पर पाणिनि के अत्यंत दुष्कर कहे जाने वाले व्याकरण को सरल रूप में परिवर्तित कर विश्व प्रसिद्ध 'मुक्तिबोध' नामक ग्रंथ की रचना कर डाले।

उनकी विद्वता के कारण ही कई राज दरबार में उन्हें महापंडित भी बनाया गया। आगे चलकर वोपदेव विद्वान्, कवि, वैद्य, व्याकरणाचार्य और ग्रंथाकार रहे। इनका लिखा कविकल्पद्रुम तथा अन्य अनेक ग्रंथ प्रसिद्घ हैं।"मुक्ताफल" और "हरिलीला" नामक ग्रंथों की भी इन्होंने रचना की। हरिलीला में संपूर्ण भागवत संक्षेप में समाया हुआ है। लोगों का ऐसा मत है कि वे विदर्भ के रहने वाले थे ।वे अनेकानेक प्रकार के कइ ग्रंथों की रचना किए। उन्होंने व्याकरण, वैद्यशास्त्र, ज्योतिष, साहित्यशास्त्र और अध्यात्म पर उपयुक्त ग्रंथों का प्रणयन करके अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिये।

अपने जीवन काल में बोपदेव भागवत पर परमहंस प्रिया, मुक्ताफल, हरिलीला, और भागवत नामक चार भाष्यग्रंथों की रचना कर संस्कृत साहित्य में अपना अमिट स्थान बना लिए।

संस्कृत में अपनी पहचान बनाने के पश्चात बोपदेव मराठी भाष्यग्रंथ लेखन शैली का शुभारंभ कर एक नई शुरुआत किए। इस तरह एक महामूर्ख, मंदबुद्धि, जड़ कहे जाने वाले बोपदेव अपने अभ्यास, मेहनत, परिश्रम और हौसले के बल पर संस्कृत के एक उच्च कोटि के व्याकरणाचार्य और प्रकांड विद्वान कहलाने लगे।

सीख-अनवरत अभ्यास, सकारात्मक सोच, कठिन परिश्रम, एक नया जोश ,हमारा हौसला हर असंभव को संभव बना सकता है।

साधना शाही, वाराणसी

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3 Comments

Mohammed urooj khan

01-Apr-2024 01:55 PM

👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾

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Gunjan Kamal

30-Mar-2024 10:36 PM

शानदार

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kashish

29-Mar-2024 12:15 PM

Awesome

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