Tabassum

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संबंध

कहानी - संबंध


शादी का जब वो निमंत्रण आया था, पूरे घर में हंगामा मच गया था. मां बोली थी, “अब यह नया खेल खेला है कमबख्त ने. पता नहीं क्या गुल खिलाने जा रही है. जरूर इसके पीछे कोई राज़ है वरना दो बेटों के रहते कोई इतना बड़ा बेटा गोद लेता है क्या? अब उसकी शादी रचाने जा रही है". 

बड़े भैया राकेश बोले थे, “आप की और वीरेश की सहमति होगी तभी तो उसने बाप की जगह वीरेश का नाम छपवाया है."
मां ने प्रतिवाद किया, “अरे कैसी सहमति? तुम्हारे पापा की 13वीं पर बताया था कि राहुल को बेटे जैसा मानने लगी है. हम तो उसे ड्राइवर समझते थे, बरामदे में ही चाय भिजवा दिया करते थे." 

“क्या बात करती है?" राकेश बोले, "राहुल हर वक्त साथ-साथ रहता है नीरू के, सारा बिज़नस देखता है. बैंक अकाउंट तक उसके नाम है. आपने ही तो बताया था."

”अरे कहती थी कि भाग दौड़ के लिए ही रखा है उसे. अकेली औरत क्या-क्या करें, अब क्या पता था की बाकायदा बेटा बना लेगी उसे." 

"तो नुकसान क्या है? आप समझ लीजिए तीन पोते हैं आपके," बड़े भैया ने बात को हल्का करना चाहा, “वीरेश आए तो उसे पूछिएगा."

महत्वाकांक्षी नीरू को घर से गए 8 साल हो गए थे. 10 और 14 साल के सुधांशु और हिमांशु को छोड़कर जब उसे जाना पड़ा था, तब घर का वातावरण काफी विषाक्त हो चुका था, लगने लगा था कि कभी भी कुछ अवांछनीय घट सकता है.

वीरेश शुरू से ही मस्त मौला किस्म का इंसान रहा है. घूमना फिरना, सजना संवारना, नाचना गाना यही शौक थे बचपन से. घर का लाडला, मां का दुलारा. मस्ती मस्ती में एमए करके गाजियाबाद में ही नौकरी भी ढूंढ ली. जबकि बड़ा बेटा राकेश सरकारी नौकरी में गाजियाबाद से बाहर ही रहा. 

इससे भी मां का लाड़ वीरेश पर कुछ ज्यादा बरसा. पैसे की कमी नहीं थी. पिताजी के पेंशन और पैतृक मकान के दो हिस्सों का किराया नियमित आमदनी थी. वीरेश धीरे-धीरे लापरवाह होने लगा, एक नौकरी छूटी दूसरी ढूंढी. कभी इस सिलसिले में घर पर भी बैठना पड़ता. पिताजी भुनभुनाते, ‘कहीं बाहर क्यों नहीं अप्लाई करते हो?' 
मां फौरन बोलती, ‘एक बेटा तो बाहर ही रहता है यह यही रहेगा, नौकरियों की कमी है क्या?' 

पिताजी चिल्लाते, ‘घर घुस होता जा रहा है. जाहिल भी हो गया है, 9 बजे से पहले सो कर नहीं उठता, तीन-चार कप चाय पीता है, तब इसकी सुबह होती है, 11 बजे नौकरी पर जाएगा तो कौन रखेगा इसे? 

कितनी अच्छी-अच्छी नौकरियां छोड़ दी. मैं कब तक खिलाऊंगा इसे?' 

पर वीरेश पर असर नहीं होता. मां बचाव करती, ‘शादी हो जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा.' 
‘कौन देगा इस निखट्टू को अपनी लड़की?' पिताजी हथियार डाल देते. 
लेकिन सुंदर चेहरे मोहरे वाला निखट्टू वीरेश प्रेम विवाह कर पत्नी ले आया. नीरू सुंदर थी. शादी के बाद वीरेश और लाट साहब हो गया. अब शाम को कभी-कभी ड्रिंक भी लेने लगा. शुरू शुरू में तो नीरू को अच्छा लगा पर जब वीरेश घूमने फिरने, पिक्चर्स वगैरा के लिए भी मां से रुपए मांगता तो उसे बुरा लगता. वीरेश नौकरी करता पर 6 महीने या साल भर से ज्यादा नहीं. कभी निकाल दिया जाता, कभी खुद छोड़ आता. कभी नौकरी जाने के गम में, कभी नौकरी मिलने की खुशी में. कभी किसी की सालगिरह पर, मतलब यह है की बेमतलब के बहानों से शराब पीना बढ़ता गया. 5 साल में दो बेटे भी हो गए.

बड़े भैया होली दिवाली आते भी तो मेहमान की तरह. कभी वीरेश को समझने की कोशिश करते तो बीच में फौरन मां आ जाती, ‘तुम सभी उसे बेचारे के पीछे क्यों पड़े रहते हो? अब उसका समय ही खराब है तो कोई क्या करें? कोई ढंग की नौकरी मिलती ही नहीं उसे. तेरी तरह सरकारी नौकरी में होता तो यह सब क्यों सुनना पड़ता उसे?' 

‘क्यों, सरकारी नौकरी में काम नहीं करना पड़ता है क्या? मेरा हर 3 साल में ट्रांसफर होता है. कितनी परेशानी होती है. मकान ढूंढो, बच्चों का नहीं स्कूल में एडमिशन कराओ. बदलता परिवेश, बदलते लोग. आसान नहीं है सरकारी नौकरी. इनका क्या है? ठाट से घर में रहते हैं. खिलाने को आप लोग हैं. जब बैठे-बैठे खाने को मिले तो कोई क्यों करें नौकरी?' 

‘बसबस, रहने दे. जब देखो तब जली कटी सुनाता रहता है. कोई अच्छी सी नौकरी ढूंढ दे इसके लिए.' 

‘अच्छी सी माने जहां काम ना हो? हुकुम बजाने के नौकर हों? घूमने के लिए गाड़ी हो? शाम के लिए दारू हो?'

‘देखा मां,' अब वीरेश बोला, ‘इसलिए मैं इन के साथ नहीं बैठता हूं. चार दिन के लिए आते हैं और चिल्लाते रहते हैं.' 
वीरेश गुस्से से बाहर चला जाता. मां बड़बड़ाती. पिताजी कभी राकेश का साथ देते तो कभी मां का. 
बच्चे बड़े हो रहे थे. खर्च बढ़ रहे थे पर वीरेश में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. पिताजी अक्सर बडबडाते. खासकर जब राकेश आते छुट्टियों में, ‘मैं पेंशन से दो-दो परिवार कैसे पालूं? तुम ही कुछ भेजा करो. बच्चे स्कूल जाने लगे हैं. कम से कम उनकी फीस तो दे ही सकते हो.' 

राकेश झुंझलाते हुए, ‘मेरे खर्चे नहीं है क्या? तनख्वाह से मेरा भी बस गुजारा ही हो रहा है. आप जानते हैं कि कोई ऊपरी आमदनी भी नहीं है मेरी. चलाने दीजिए इसको अपनी गृहस्थी किराए से या कैसे भी. अपने आप ठीक हो जाएगा. आप लोग चलिए मेरे साथ इलाहाबाद.'

‘बेटे, भूखा मरते तू देख सकता है भाई को. मां-बाप नहीं देख सकते. हम तो करेंगे जितना हो सकेगा. तुझे मदद नहीं करनी, मत कर. किराए से बेचारे वीरेश का खर्चा कैसे चलेगा?' मां आ जाती बीच में.
 
‘बेचारा, बेचारा, क्यों है बेचारा वो? लूलालंगड़ा है? दिमाग से कमजोर है? क्या कमी है उसमें? अच्छी खासी नौकरियां छोड़ी उसने. किस वजह से? अपनी काहिली की वजह से ना? गाजियाबाद छोड़कर कहीं बाहर नहीं जाएंगे, क्यों? घर बैठे हलवा पराठा मिले तो कोई काम क्यों करें? आप लोगों ने ही बिगाड़ा है उसे. कभी सख्ती से नहीं कहा कि पालो अपना परिवार, राकेश के सब्र का बांध टूट गया. 

‘कहा है बेटा, कई बार कहा, पिताजी ने सफाई दी, ‘पहले कहता था मैं कोशिश करता हूं पर अच्छी नौकरी नहीं मिलती. अब कहता है कि घर छोड़ दूंगा साधु बन जाऊंगा. आत्महत्या कर लूंगा. एक बार चला भी गया था. 2 दिन तक नहीं आया, तुम्हारी मां का रो-रोकर बुरा हाल हो गया था.'

‘इसे क्या? ये तो आराम से बाहर नौकरी करता है. वह तो मेरी ममता थी जो उसे खींच लाई वरना वह साधु बन गया था,’ मां ने कहा.
‘मां की ममता नहीं थी, भूख के थपेड़े थे. पैसे खत्म हो गए होंगे लाटसाहब के,' राकेश चिल्लाए.

‘ठीक है, यह बहस, अब बंद करो, हमेशा की तरह मां-बाप बढ़ती हुई चली गई. 
वीरेश और नीरू के झगड़े बढ़ने लगे. अक्सर मारपीट तक नौबत आ जाती. बच्चों के कोमल मां पर असर पड़ने लगा था. 
बड़ा बेटा सुधांशु गुमसुम हो गया था. छोटा बेटा हिमांशु जिद्दी और मनमौजी. नीरू ने खुद काम करना शुरू किया. कभी छोटी नौकरी की. कभी घर में आचार मुरब्बा बनाकर बेचे. इसके लिए उसे घर से बाहर निकालना पड़ता है तब भी वीरेश चिल्लाता, 'देखो कैसे नखरे दिखा रही है कामकाजी बन कर, जैसे घर में भूखी मरती है. अरे, इसका मन ही नहीं लगता घर में. बाहर 10 लोगों से मिलती है, रंगरेलियां मनाती है मां, जरा पूछो इससे, कितनी कमाई करके लाती है?'

नीरू जवाब देती तो झगड़ा और बढ़ता. मां अक्सर वीरेश का पक्ष लेती और बहस मारपीट तक पहुंच जाती. बच्चे सहमे हुए होमवर्क करने का नाटक करने लगते. यह झगड़ा तब जरूर होता जब वीरेश नशे में होता. 

तभी वीरेश को एक अच्छी एडवरटाइजिंग कंपनी में स्थानीय प्रतिनिधि की नौकरी मिल गई. लगा अब सब ठीक हो जाएगा. वीरेश को अपनी कंपनी के लिए विज्ञापन लाने का काम करना था. पर उसके आलसी स्वभाव के कारण उसे विज्ञापन नहीं मिल पाते थे. 
नीरू ने वीरेश की मदद की और विज्ञापन मिलने लगे. अब होता यह की जाना वीरेश को होता पर वह नीरू को भेज देता. कभी नीरू का विज्ञापनों के सिलसिले में कंपनी के जीएम से सीधी बात करनी पड़ जाती. नतीजा यह होगी कंपनी ने कुछ दिनों में वीरेश की जगह नीरू को प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया. 

इस पर घर में महाभारत हो गया नीरू ने नियुक्ति अस्वीकार कर दी. पर कंपनी ने वीरेश को फिर नियुक्त नहीं किया. मां ने विदेश की नौकरी जाने पर सारा दोष नीरू के सर मढ़ दिया और फिर वीरेश शराब में डूब गया.
बच्चों के बढ़ते खर्च और वीरेश के तानों से तंग आकर नीरू ने एक बार फिर प्रयास किया और खुद ही भाग दौड़कर सरकार की महिला स्वरोजगार योजना के तहत बैंक से लोन लिया और फल संरक्षण केंद्र खोल लिया. पर उसके लिए भी उसे घर से बाहर जाना पड़ता. 

कुछ दिनों बाद यह काम भी बंद हो गया. बैंक से ऋण वसूली का नोटिस आया, वीरेश ने जवाब भिजवाया कि यहां कोई नीरू नहीं रहती. पर बैंक के रिकॉर्ड्स में नीरू के पति वीरेश और पारिवारिक मकान का सत्यापन प्रमाण थे. इसलिए रिकवरी नोटिस लेकर बैंक पुलिस अधिकारी के साथ पहुंच गए.

वीरेश के हाथ पांव फूल गए और वह नीरू को उसके मायके छोड़ आया. पिताजी ने सरकारी नौकरी का वास्ता दिखाकर समय मांगा और बैंक किरण अदायगी की. इसमें नीरू के और कुछ मां के भी जेवर बिक गए. राकेश ने काफी रुपए भिजवाए. मां ने ऐलान कर दिया कि वह कमबख्त अब इस घर में दोबारा नहीं आएगी और भला वीरेश को इससे क्या एतराज हो सकता था? 

बाद में नीरू ने एक पत्र राकेश को भी लिखा. उसका सारा आक्रोश मां के ऊपर था पर वीरेश को भी कभी माफ न करने की कसम खाई थी. इतना ही नहीं, उसने आरोप लगाया था कि वीरेश ने एडवरटाइजिंग कंपनी में अपनी स्टेनो से अवैध संबंध भी बना लिए‌ थे. सबूत के तौर पर एक पत्र भी संलग्न था जो किसी किरण ने वीरेश को लिखा था.

राकेश संग रह गए थे. ऐसी स्थिति में मन को या वीरेश को समझाना व्यर्थ था. उन्होंने नीरू को ही समझाया कि इस स्थिति में समझौते से अच्छा है अपने पैरों पर खड़ा होना. बाद में पता चला कि नीरू ने दिल्ली जाकर पहले एडवरटाइजिंग एजेंसी में काम किया. फिर प्रॉपर्टी डीलर बन गई. फ्लैट लिया, गाड़ी ली. घर तो कभी नहीं आई पर बच्चों से उनके स्कूलों में मिलती रही. जन्मदिन पर, त्योहारों पर बच्चों को तोहफे भी भिजवाती रही. 

साल दर साल बीतते गए. मां पिताजी ने कोशिश की की तलाक दिलवाकर वीरेश की दूसरी शादी करवाएं पर नीरू का संदेश आया कि भूल कर भी ऐसा नहीं करिएगा वरना शारीरिक प्रार्थना के बाद घर से निकालने का केस बन जाएगा. वीरेश सन्यासी सा हो गया. 

बढ़ती उम्र और शराब ने एक अजीब दयनीयता पोत दी थी उसके चेहरे पर. न किसी से मिलना ना कहीं जाना. बस, शाम को किसी बहाने से मां से पैसे लेकर निकल जाता और देर रात झूमताझामता आता और सो जाता. तरस आने लगा उसे देखकर.

करीब 8 साल बाद नीरू घर आई जब पिताजी की मृत्यु हुई. शौक के अवसर पर किसी ने उसे कुछ नहीं कहा. तभी पहली बार सब ने राहुल को देखा था. 25-26 वर्ष का हट्टा कट्टा लडका, चुपचाप बरामदे में बैठा था. सब ने उसे ड्राइवर ही समझा था. संवेदना व्यक्त करके नीरू चली गई पर उसके बाद वह अक्सर आने लगी. मां और वीरेश के व्यवहार से लगा कि उन्होंने उसे अपने का मन बना लिया. 

एक बार जिद करके अपनी कार से वह उन्हें नोएडा भी ले गई जहां उसने शानदार फ्लैट लिया था. सुधांशु को नौकरी दिलवाने में मदद की और हिमांशु को इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला दिलवाया वीरेश अक्सर नोएडा जाने लगा. गाड़ी पटरी पर आ ही रही थी कि यह धमाका हो गया. 

राहुल की शादी का कार्ड आया. मां की जगह नीरू, पिता की जगह वीरेश और दादी की जगह मां का नाम छपा हुआ था.

सुगबुगाहट अभी थमी भी नहीं थी कि एक शाम नीरू आई. मिठाई के डब्बे और उपहार के साथ. राहुल की सगाई में उसकी ससुराल से मिले थे उपहार. कार्ड के बारे में पूछने पर नीरू ने कहा कि उसने वीरेश को बता दिया था कि उसने बाकायदा राहुल को गोद लिया है और वीरेश ने कोई आपत्ति नहीं की थी.

अब नीरू उसकी मां हो गई तो वीरेश स्वत: ही पिता हो गया और मां दादी. वीरेश ने ही उसका बचाव किया, ‘अपने बेटों से इतने साल अलग रही तो राहुल को देखकर मातृत्व जागा और जब बेटा बना ही लिया तो शादी भी तो करनी थी, 'सब ने इस पर मौन सहमति दे दी. 

राहुल की शादी में सब सम्मिलित हुए. सुधांशु और हिमांशु भी भैया की शादी में खूब नाचे. मां तो गदगद थी. नीरू ने उन्हें कई कीमती साड़ियों के साथ हीरे के टॉप्स दिए थे. राहुल की ससुराल से भी दादी मां के लिए साड़ी मिली थी. शादी के बाद नीरू बहू को लेकर जब गाजियाबाद गई तब मां ने मुंह दिखाई में साड़ी दी बहू को. इसी हंसी-खुशी के माहौल में मां ने नीरू से कहा कि अब वह भी लौट आए और अपनी गृहस्ती संभाले. 

नीरू एक मिनट तो चुप रही फिर जैसे फट पड़ी, “आप अपने लड़के की फिक्र कीजिए माजी. मेरी गृहस्थी तो उजड़ी भी और बस भी गई. उजड़ी तब थी जब मुझे धोखे से मायका पहुंचा दिया गया था कि मामला ठंडा होने पर ले आएंगे, और यह शायद खुद सौत लाने की फिराक में थे. सब नहीं इन्हीं का साथ दिया था तब. जैसे सारी गलती मेरी ही हो. मेरा कसूर यही था ना कि मैं आपके बेटे को उसके पैरों पर खड़ा देखना चाहती थी. तब उजड़ी थी मेरी गृहस्ती और बसी तब जब मैं अपने पैरों पर खड़ी हो गई. हां, तब मुझे भी गैर मर्दों का सहारा लेना पड़ा था. पर अब मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं.

“पता नहीं मेरे बेटे मेरे रह पाते या नहीं इसलिए एक बेटा अपनाया. अब मैं भी सासू मां हूं. मेरा भरापूरा परिवार है. अब जिसे मेरा साथ चाहिए वह आए मेरे पास. इस घर से मैंने अपना संबंध टूटने नहीं दिया. पर वह संबंध अब आपकी शर्तों पर नहीं, मेरी शर्तों पर रहेगा. पूछिए अपने बेटे से, क्या वह रह सकते हैं मेरे साथ, मेरी शर्तों पर या यूं ही मां की पेंशन पर जिंदगी गुजारने का इरादा रखते हैं?"
 
सब हैरान थे पर वीरेश का मौन और आंख से बहते आंसू उसकी सहमति बयां कर रहे थे!
परिवार में माता पिता, भाई बहन सब अपनी जगह पर अत्यंत आवश्यक है और महत्वपूर्ण भी परन्तु किसी भी प्रकार से बेटा बेटी का अपनी जिम्मेदारियों को अनदेखा करना और नाहक ही माता पिता का अनावश्यक लाड-प्यार अकसर किसी ना किसी बच्चे को नुक्सान जरूर पहुंचाता है ।।।


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6 Comments

Mohammed urooj khan

16-Apr-2024 12:09 AM

👌🏾👌🏾👌🏾

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Varsha_Upadhyay

10-Apr-2024 11:42 PM

Nice

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Babita patel

07-Apr-2024 10:00 AM

Amazing

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