जैसा संग वैसा रंग ( कहानी )प्रतियोगिता हेतु16-Apr-2024
जैसा संग वैसा रंग (कहानी) प्रतियोगिता हेतु
अपने बालपन में रमेश बड़ा ही चंचल, व्यवहार कुशल, मेधावी और आकर्षक व्यक्तित्व वाला बालक था किंतु जैसे-जैसे वह किशोरावस्था की तरफ़ बढ़ता गया वैसे-वैसे उसकी संगति बिगड़ती गई परिणामत: उसके अंदर विकृतियाँ घर करती गईं और एक समय ऐसा आया कि वह अपनी विकृतियों के कारण चोरी, व्यभिचारी जैसे दुष्कर्म की तरफ़ अग्रसर हो गया।
कहा जाता है पाप का घड़ा जब फूटता है तो उसका परिणाम बड़ा ही दुखद होता है। ऐसा ही रमेश के साथ भी हुआ।
उसका भी पाप का घड़ा फूटा और उसे गिरफ़्तार कर लिया गया। जेल में जाने के पश्चात वहांँ पर उसकी मुलाकात एक मोहन नाम के एक सजन से हुई जो की किसी और की गलती किसी और की गलती की सज़ा काट रहे थे। धीरे-धीरे इन दोनों में घनिष्ठ बढ़ती गई और रमेश के अंदर की बुराइयांँ कब अच्छाइयों में परिवर्तित होने लगीं इस बात का उसे आभास ही नहीं रहा। किंतु मोहन यह देखकर अंदर ही अंदर बड़ा प्रसन्न था कि रमेश में अब बहुत सकारात्मक सुधार हो रहा है। समय बीतता रहा दोनों के जेल से छूटने का दिन भी क़रीब आ गया और अब रमेश को भी इस चीज का एहसास हो चुका था कि अब वह बुराई से अच्छाई की तरफ़ उन्मुख हो गया है। अतः अब वह किसी भी कीमत पर पुनः बुराइयों में लिप्त नहीं होना चाहता था। उसने मोहन से पूछा मोहन मुझे लगता है तुम्हारे साथ रहकर मैं बहुत सुधर गया हूंँ लेकिन मुझे डर है कि जेल से बाहर निकलने के पश्चात कहीं ऐसा न हो कि फिर मैं उन्हीं संगी- साथियों के मध्य उठना- बैठना शुरू करके उन्हीं दुष्कर्मों को करने लगूँ जिनकी वज़ह से मैं जेल आया था। मुझे कोई ऐसा उपाय बताओ कि मैं अब एक सज्जन व्यक्ति की ज़िंदगी जी कर इस दुनिया को अलविदा कहूंँ।
तब मोहन ने रमेश को समझाते हुए कहा, यदि तुम वास्तव में एक सज्जन, नेक दिल इंसान बनना चाहते हो तो प्रतिदिन प्रातकाल उठकर भगवान का स्मरण करो और उनसे प्रार्थना करो कि हे ईश्वर! आज के दिन मुझे मनसा, वाचा, कर्मणा किसी भी प्रकार का कोई पाप न हो। वेदों, पुराणों आदि धर्म ग्रंथों का यथाशक्ति और यथासमय अध्ययन करो। सात्विक भोजन ग्रहण करो, सज्जन का साथ करो, दुर्जन से दूर रहो यदि तुम अपनी दिनचर्या को इस प्रकार कर सकोगे तो बुराइयांँ छू भी नहीं सकेंगी।
रमेश को मोहन की बात बड़ी अच्छी लगी और वह जेल से रिहा होने के पश्चात मोहन के सुझाए हुए दिनचर्या के अनुसार ही अपनी दिनचर्या को निर्धारित किया। अब वह उस गांँव के एक सज्जन, सभ्य लोगों में गिना जाने लगा। आसपास के गांँव में भी लोग उसका सम्मान करने लगे।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मोहन रमेश के लिए पारस पत्थर के समान साबित हुआ जिसने रमेश जैसे लोहे को सोना बना दिया। जिसके साथ में रमेश जैसे दुराचारी, व्यभिचारी, अपमानित जीवन जीने वाला व्यक्ति उसके परिवार एवं गांव में ही नहीं वरन् आस-पास के गांँव में भी अत्यंत सम्मानित व्यक्तियों में शामिल हो गया ।
बहुत समय पश्चात एक बार अचानक रमेश और मोहन की मुलाकात हुई रमेश मोहन के पैर छूने लगा। मोहन ने उसे उठाकर गले लगाते हुए कहा नहीं मित्र तुम यह क्या कर रहे हो हम दोनों तो मित्र हैं। तब रमेश ने आँखों में आंँसू भर कर कहा नहीं मोहन तुम मेरे मित्र से पहले गुरु हो। तुम्हारे ही वज़ह से मैं बुरी संगत से निजात पाकर मान- सम्मान, प्यार- मोहब्बत की ज़िंदगी जी रहा हूंँ।
सही कहा जाता है- 'जैसा संग वैसा रंग' तुम्हारा साथ न मिला रहता है तो आज भी मैं उन्हीं बुरी संगति के बीच रहकर अपमानजनक ज़िंदगी जी रहा होता और शायद फिर से जेल की सलाखों के पीछे अपना जीवन काट रहा होता।
साधना शाही, वाराणसी
Mohammed urooj khan
20-Apr-2024 11:11 AM
👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾
Reply
Gunjan Kamal
19-Apr-2024 06:27 PM
बहुत खूब
Reply