Tabassum

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लड़खड़ाना

कर्ज़-ए-उल्फत तो, पतंगे को चुकाना ही पड़े.

शम्मा के आगोश में , ख़ुद को मिटाना ही पड़े.

इस सराय में किसी का घर नहीं बसता कभी, 
रात को ठहरे मुसाफ़िर, सुबह जाना ही पड़े.

तिश्नगी दीदार की इक हद से बढ़ जाये अगर, 
ख़ुद-ब-ख़ुद महबूब को,पर्दा उठाना ही पड़े.

इस चमन में सिर्फ़ गुल ही तो नहीं हैं जान ए जां
इश्क़ है गुल से तो कांटों से निभाना ही पड़े.

इस समंदर का कोई साहिल नहीं दिखता कहीं, 
पार होने के लिये, बस डूब जाना ही पड़े.

ज़िद तो करता हूँ कि देखूँ बे-हिजाबाना उसे, 
नूर को देखूं तो नज़रों को झुकाना ही पड़े.

सच नहीं बर्दाश्त कर पायेगी दुनिया, इसलिये, 
जानकर हक़ को भी, दुनिया से छिपाना ही पड़े.

ज़र्फ़ पैदा कर ज़रा, फ़िर मैकदे में आ के बैठ, 
वो भी क्या मय-कश कि जिसको लड़खड़ाना ही पड़े!!

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4 Comments

Gunjan Kamal

30-Apr-2024 08:24 AM

शानदार

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Varsha_Upadhyay

27-Apr-2024 10:57 PM

Nice

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Babita patel

27-Apr-2024 02:33 PM

Awesome

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