माँ तुम क्या-क्या देती हो ( कविता) स्वैच्छिक प्रतियोगिता हेतु 30-Apr-2024
माँ तुम क्या-क्या देती हो? स्वैच्छिक प्रतियोगिता हेतु
बंजर सी इस धरती पर मांँ अमृत रस बरसा देती हो, जब भी मैं मायूस हूँ होती जाने कैसे हर्षा देती हो।
दुख- व्यवधान से टूट भँवर में जब मैं घबरा कर रोती हूंँ, बिन बतलाए ही माँआकर घावों को सहला देती हो।
सत्व,रज,तम का भेद बताती जग में तुम जीना सिखलाती, संस्कारों से पूरित करके जीवन सफ़ल बना देती हो।
पुस्तक, कलम गहि ना तुम हो प्रथम शिक्षिका तुम कहलाती, अपने बच्चों की रक्षा खा़तिर अपना सर्वस्व लुटा देती हो।
जीव मात्र की मांँ को देखो सबकी सब महिमा मंडित हैं, अपने आगे की थाली हँस बच्चों को सरका देती हो।
जग में कोई जितना चाहे तेरे आगे सब फीका है, तुम हो प्यार का सागर मैया इसमें हमको डूबा देती हो।
मन जब भी है व्याकुल होता राह कहीं ना कोई सूझता, ध्वंस को तत्क्षण रोक के मैया निर्माण का पथ दिखला देती हो।
माघ- पूष की ठिठुरन में मांँ मधुमास का बोध कराती, जेठ -आषाढ़ की तपती दुपहरी सावन-भादो ला देती हो।
अपना रुधिर पिलाकर सुत को स्नेहासिक्त उसको कर देती, पूनम के चंदा सा मैया कलमस्ता को भगा देती हो।
क्या-क्या तुम देती हो मैया वर्णन करना बड़ा ही मुश्किल, जग में कुछ भी शेष रहा ना बच्चों को जो ना देती हो।
साधना शाही, वाराणसी
Babita patel
01-May-2024 07:16 AM
No words wow
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Gunjan Kamal
01-May-2024 12:37 AM
बेहतरीन
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