लेखनी कहानी -01-May-2024
01,05, 2025 बुधवार प्रतियोगिता हेतु
श्रमिक की जीवन गाथा
श्रमिकों की गाथा एक ऐसी कविता है जिसमें एक श्रमिक तथा उसके परिवार को जी तोड़ परिश्रम करने के पश्चात भी दो वक्त की रुखी- सूखी रोटी नसीब नहीं होती । जबकि वह जिस सेठ के यहाॅं काम करता है उसके यहाॅं भाॅंति -भाॅंति का व्यंजन कचरे के डिब्बे में डाल दिया जाता है। जब श्रमिक कचरे के डिब्बे में उस भोजन को देखता है तो उसका मन ललचा उठता है और वह उस डिब्बे में से जाकर भोजन निकालता है और अपने बच्चों के लिए लेकर जाता है। जिसे खाकर उसके बच्चे तृप्त होते हैं।
मेरे अंदर हिम्मत बसता, जिसको कोई तोड़ न सकता। इससे मुझको रोटी मिलती, वो ही भूखी क्षुधा को भरती।
मेरे अंदर पिता है बसता, जिसके बच्चे भूख से रोते । जब जेठ दोपहरी तपूॅंगा मैं, तब आधा पेट खाकर के सोते।
बच्चों से यदि कुछ बचता है, कौर दो कौर मुझे मिल जाता। साफ़ -सुथरा यदि पात्र है दिखता, संतुष्टि जल आँत को देता।
मेरे अंदर पुत्र वास करे, मात-पिता की भूख एहसास करे। दिन भर गारा- मिट्टी करता हूॅं, प्याज- रोटी तब बैठ साथ करें।
हाॅं, मेरी भी घरवाली है, जिसकी आंँखों में सपने हैं। वो चूड़ी, बिंदी माॅंगती है, उसके हर सपने दफ़ने हैं।
मेरा अधिपति धनाढ्य सेठ, जिस हेतु मैं नित कर्म करूॅं। उसके घर पकवान है रोज बने, मैं तृप्त रहूॅं खुशबू को सेंक।
जब नित कचड़े के डिब्बे में, आया पकवान ला डालती है। मैं सबकी आंँखों से बचकर, चुन लेता हूॅं खुद हिस्से में।
जब उस पकवान को लेकर मैं, अपने घर रात को जाता हूॅं। तब ईद- दिवाली मनती है, और मैं ख़ुद पर इतराता हूॅं।
सदियों से मेरी यह किस्मत है, जो जाने कब परिवर्तित होगी। मैं महल- दोमहले बनाता हूॅं, मेरी झुग्गी कब रूपांतरित होगी।
तन पर चीर के नाम कुछ चिथड़े हैं, बामुश्किल इज्ज़त ढक पाते हैं। मैं कारखाने का बुनकर हूॅं, जहाॅं लाखों के वस्त्र नित बिकते हैं।
मेरे हाथों में उलझी रेखाएंँ हैं, किस्मत की रेखा शायद नहीं बनी। तब ही तो मैं मर मिटता हूॅं, पर जीवन सुख की सदा ठनी।
चौबीसों घंटे आठों पहर, घरवाली मुझसे पूछती है। सेठ के घर तीज-त्योहार मने, क्यों हमसे है यह सदा ही छीने।
साधना शाही,वाराणसी
Babita patel
02-May-2024 07:27 AM
V nice
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