नीति-वचन-18
*नीति-वचन*-18
सरल-सहज बड़ कोमल बचपन।
बिनु छल-कपट हृदय रहँ भगवन।।
अस अबोध-मासूम सुभावा।
हिंसक पसु सँग खेलत पावा।।
धर्म-अर्थ अरु कामइ सिद्धी।
मिलै न जदि रह अधरम बृद्धी।।
तीरथ-लाभु-पुन्य जे मिलई।
सो करि राहत-कारजु पवई।।
कर्म बीज परिपक्व प्रभावा।
जगत-जीव-प्रारब्ध बनावा।।
सुख-दुख,भागि-अभागि बिफलता।
मिलै प्ररब्ध अनुकूल सफलता।।
सकल बिस्व परिवार समाना।
समुझइ जे सो पंडित जाना।।
आत्म-भाव अरु आत्मइ दृष्टी।
अपुन-पराया रखि समदृष्टी।।
जासु हृदय महँ रह अस भावा।
तापर समुझहु प्रभू-प्रभावा।।
हरै पवन जस नावहि नीरा।
बिषय-भोग मन कबहुँ न थीरा।।
पवन बहै केतनउ बरिआई।
झाड़ि-झखाड़ उखाड़ि न पाई।।
रह तरु मग जे ठाढ़ि घमंडा।
करै पवन तिन्ह खंडिइ-खंडा।।
अवनत सिर जग रह बलवंता।
ठाढ़ी गरदन कटै तुरंता ।।
श्रम अरु अंस, समय अरु ग्याना।
करहिं दान अस संत-सुजाना।।
इक ढेला अरु दूजा ढेला।
सब ढेला अहँ माटी-ढेला।।
पुष्प तरे जे देइ सुगंधा।
गोबर तरे जे दे दुर्गंधा।।
दोहा-सुनहु मीत यहि जगत मा,संग-कुसंग-निवास।
धरती पसु-मानव रहैं,चिरई उड़ै अकास।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372