नीति-वचन-20
* नीति-वचन*-20
जब लगि साथे रहहि सरीरा।
होंवहिं इक-इक करम गँभीरा।।
मिलै इहाँ फल कृत अनुसारा।
करमजोग कै इहवयि सारा।।
उत्तम-मद्धिम जे जस करई।
पाई वस फल जग महँ मनई।।
करहु करम बड़ सोचि-बिचारी।
बिनु आसक्तिहिं होहु सुखारी।।
कर्म करत जदि बंधन नाहीं।
कर्मजोगि नर तुरत कहाहीं।।
माया-मोह दुक्ख कै कारन।
अनासक्त नर नहिं साधारन।।
राग-द्वेष अपि बंधन-मूला।
दुइनउ देहिं अंत मा सूला।।
माया-मोह,राग अरु द्वेषा।
कर्मजोगि कै नहिं ये भेषा।।
कर्तापन कै अहम निसाना।
अहहि न कर्मजोगि-पहिचाना।।
समदृष्टी औरउ समभावा।
कर्मजोगि कै अहहि सुभावा।।
कर्म-कुसलता भगवदप्राप्ती।
बिना कामना बिनु आसक्ती।।
दोहा-गीता कै संदेस अस,करउ कर्म निष्काम।
बिनु असक्तिहिं कर्म करि,पाउ परम सुख-धाम।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372