ममता (कविता )प्रतियोगिता हेतु12-May-2024
दिनांक-12,05 2024 दिवस- रविवार विषय- ममता ( कविता) प्रतियोगिता हेतु
आओ तुमको बात बताऊॕँ , एक नन्हें से लाल की। पिता थे जिसके स्वर्ग सिधारे, माँ पर कृपा थी महाकाल की।
दिन भर अम्मा मेहनत करती, निज सुत का करती लालन-पालन। सारी सुख-सुविधाएॕं बेटे को देती, निज सुख का ना करती आवाहन।
अपने शिशु पर लाड़ लुटाती, हर विपदा से वो लड़ जाती। जीवन फू़ँलों की थी सेज, निज-नंदन सुख से की ना कुरेज।
निज वास्ते ना इच्छा उसका, बेटे पर तन- मन, धन छिड़का। पढ़-लिख बेटा बन गया साहब, जेब में आ गई अब गर्माहट।
गाॅंव छोड़ वह गया शहर में, फिर आया अम्मा से मिलने। मिलना था बस एक बहाना, लूट के दौलत था ले जाना।
बोला माँ से बड़े प्यार से, सुन लो अम्मा मेरी बात। खेत बेच कर पैसा दे दो , शहर में ले लूॅं एक आवास।
माँ की ख़ुशी का नहीं ठिकाना, सोची बेटा करेगा मेरा नाम । धन- दौलत क्यों मुझे चाहिए, मुझको दो रोटी ,एक धोती से काम।
जीवन भर की संचित पूँजी, एक ही पल में दी वह बेच। पैसे दे दी झट वो बेटे को, नहीं लगाई थी कोई पेंच।
बेटे की खु़शी का नहीं ठिकाना, कार्य किया था वह मनमाना। अपने नाम का ले लिया घर, माँ का ना था उसको डर।
बाट जोह रही बूढ़ी मात दिन,दुपहरिया,अॕँधेरी रात। ना कोई आता उसके पास, उसके पास थी केवल आस।
एक दिन मेरा बेटा आएगा, शहर मुझे भी ले जाएगा। बस इसी उम्मीद में थी वह ज़िंदा, लोग करें उसको शर्मिंदा।
एक दिन बेटा फिर से आया, दादा बनने की खुशी सुनाया। खुशी से अम्मा हो गया कुप्पा, ना समझी यह साॅंप है छुप्पा।
बहू पोते को कब मैं देखूॅंगी, कब पोते की बलैया लूॅंगी, पके आम का क्या है ठिकाना, ना जाने कब चू जाऊॕंगी।
बेटा बोला बस कुछ दिन और, बस अम्मा रुकिए इस ठौर, ऑफिस से सस्पेंड हुआ हूॅं, नहीं ठिकाना एक भी कौर।
माँ के पास ना एक रुपैया, फ़िर भी बोली रुक मेरा भैया, महाजन से वो ले ली उधार, दे बेटे को पूछी आओगे कहिया।
दिन ,महीना बीता वर्ष, छीनने लगा था उसका हर्ष, कब आएॕंगे मेरे बच्चे, ना उसको आता था अमर्ष।
निश-दिन सोचे एक ही बात, समय ना होगा बच्चे के पास , वरना वो जल्दी से आता, ले जाता मुझे अपने साथ।
क़र्ज़ महाजन से जो ली थी, ना वह पैसा दे पाई थी। एक दिन वह उसके घर आया, अम्मा को वह बड़ा सुनाया।
जोड़ी हाथ बड़ा गिड़गिड़ाई, महाजन को थी दया न आई। देने की औकात न थी जब, मुॅंह उठाकर क्यों लेने आई।
बोली अम्मा रुक मेरे भैया, लाती हूॅं मैं तुरंत रुपैया, बेची जाकर अपना ख़ून, ले लो बाबू पइया - पइया।
फिर भी पैसा ना हुआ पूरा, चुकता हो पाया था अधूरा, सोच ने था अम्मा को घेरा, कब मेरा लल्ला करेगा फेरा?
फिर सोची थी कोई उक्ति , पता करूॅं कहाॅं आॕंख है बिकती, बिक जाए यदि मेरी एक आॕंख, मिल जाए इस क़र्ज़ से मुक्ति।
तुरंत पहुॅंच गई अस्पताल में, आॕंख को बेची फ़िलहाल में, ले पैसा वह दौड़कर आई, महाजन को दी तत्काल में।
बेटे का करती रही इंतज़ार, पर ना आया खंजर, औजार, बूढ़ी आंँखें अब सोई थीं, अब तक जो बहू, पोते को जोई थीं।
साधना शाही, वाराणसी
Gunjan Kamal
03-Jun-2024 04:46 PM
👏🏻👌🏻
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Varsha_Upadhyay
14-May-2024 12:37 AM
Nice
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