नीति-वचन-21
नीति वचन
,*नीति वचन*-21
जहाँ धरम तहँ प्रभू-निवासा।
करम-धरम बिनु पुर्न बिनासा।।
राखहु करम-धरम नहिं अंतर।
करमइ धरम कै असली मंतर।।
संपति-बिपतिहिं एक समाना।
चिंतक-साधक-संत-सुजाना।।
तजै न चंदन निज सितलाई।
रहँ भुजंग बरु बहु लिपटाई।।
संत-बचन कै नहिं कछु मोला।
बाल-सुभाउ संत-मन भोला।।
पुरुष लिप्त आलस्य-प्रमादा।
रहहि भयातुर लोक-प्रबादा।।
अस जन कायर परम गुमानी।
लक्ष्य-सिद्धि नहिं अस अग्यानी।।
जे कछु निज मन आवहिं भावा।
पुनि बुधि परखहिं भाव-प्रभावा।।
संतन्ह हृदय भाव रह बाढ़ा।
प्रभुहिं प्रेम यहिं तें रह गाढ़ा।।
जासु हृदय नहिं भाव-प्रधाना।
हृदय तासु पाषान समाना।।
प्रभु प्रति उमड़ै जब हिय भावा।
बुधि अपि भाव-बेग मिलि जावा।।
बुधि अरु तर्क परे प्रभु-प्रेमा।
बिनु सुचिमन नहिं भाव न नेमा।।
कोमल-कठिन भेद अस मानउ।
जिह्वा-दंत-भेद जस जानउ।।
टूटहिं दंत जीभ रहि जाए।
कोमल भाव कठोर न पाए।।
दोहा-सत्य रहहि जग मा सदा,मिटइ असत-अस्तित्व।
कोमल बानी जे भखहिं,भुलइ न तिसु वक्तृत्व।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
Gunjan Kamal
03-Jun-2024 04:51 PM
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