मन करता है(कविता) स्वैच्छिक प्रतियोगिता हेतु-02-Jun-2024
मन करता है स्वैच्छिक प्रतियोगिता हेतु
मन करता है रोटी बनाकर, भूखे कि मैं भूख मिटाऊँ। ऊँच- नीच का भेद भूलाकर, मानवता का पाठ पढ़ाऊँ।
मन करता है सत्कर्मों का, झोला एक मैं साथ ले आऊँ। भटक गए जो राही पथ से, थोड़ा सत्कर्म उन्हें दे आऊँ।
मन करता है वृक्ष लगाकर, धरा की व्याकुलता को मिटाऊँ। संतुलित पर्यावरण बनाकर, धरा पर खुशहाली ले आऊँ।
मन करता है दश्त बनाकर, खग को उनका घर दे आऊँ। तड़प-तड़प ना मरें परींदे, ऐसा उन हित शहर बसाऊँ।
मन करता है भ्रष्टाचार को, आग लगाकर तुरंत जलाऊँ। मानवता और सदाचार के, कल्पवृक्ष का बेल लगाऊँ।
मन करता है तहज़ीबों की, एक पाठशाला मैं खुलवाऊँ। नामुहज्जब का सर कूचकर, धरा से उसका वजूद मिटाऊँ।
मन करता आवाम सकल को, कहकहों का एक भेंट दे आऊँ। रूदन-रूवाँसी कहीं बचे ना, मार- मारकर इसे भगाऊँ।
मन करता है अपने मन में, कभी बुढ़ापा ना ले आऊँ। अभिलाषाएँ सदा युवा हों, भले कृषकाय गात को पाऊँ।
इच्छाएंँ जब तक है ज़िंदा, तब तक ही मानव ज़िंदा है। इच्छाएंँ जब दफ़न हुईं तो, घोर निशा का बना नुमाइंदा।
साधना शाही, वाराणसी
RISHITA
05-Jun-2024 02:09 PM
Amazing
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Aliya khan
03-Jun-2024 12:50 PM
Behtarin
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Gunjan Kamal
03-Jun-2024 12:47 PM
शानदार प्रस्तुति
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