लेखनी से मिले
प्रतियोगिता के लिए
लेखनी से मिले
खुद से मजबूर कितना होने लगे थे।
कभी- कभी तो बहुत रोने लगे थे।
दिए इस ज़माने ने सितम बेइंतिहा।
दिल में छिपा उन्हें ढोने लगे थे।
कभी बयाँ कर दिया दर्द किसी से।
कह दिया लिखो तो लिखने लगे थे।
दिखे न कहीं उम्मीदों का चिराग।
शरर की माफ़िक़ जलने लगे थे।
लेखनी ने कहा न हो मायूस इतना।
ढाँढस बँधाया तो संभलने लगे थे।
लिखी कोई गज़ल या लिख दी शायरी।
काबिल न थे पर कुछ तो लिखने लगे थे।
कागज़ पर न जाने क्या क्या लिख दिया।
हर्फ़ लफ्ज़ बन जुबां पर फिसलने लगे थे।
समझ न आती खुद को तहरीर कभी।
लेखनी को अजूबा समझने लगे थे।
नीली सियाही से ज़रर को लिखा जब।
फुगां पर लोग वाह वाह करने लगे थे।
एक मोड़ पर आ लेखनी मंच से मिले।
भले दोस्तों की सोहबत में संवरने लगे थे।
रूबरू जब हुए लेखनी के करिश्मे से।
वाह वाह इसकी हर वक्त करने लगे थे।
हाल ये है कि बिन लिखे रहा जाता नहीं।
लेखनी के सबक पर आज लिखने लगे थे।
स्नेहलता पाण्डेय 'स्नेह'
नई दिल्ली
26/10/21
शरर- चिंगारी
ज़रर- घाव
फुगां- दर्द भरी पुकार
तहरीर- लिखावट
Khushi jha
29-Oct-2021 01:57 PM
बेहतरीन
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Swati chourasia
27-Oct-2021 04:55 PM
Very nice 👌
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ऋषभ दिव्येन्द्र
27-Oct-2021 11:49 AM
जबरदस्त....जबरदस्त....जबरदस्त 👌👌👌👌
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