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अपनी अपनी पीर

सबकी अपनी अपनी व्यथा

सबकी अपनी पीर ,

अपनी पीर पहाड़ सम,

दूजै की दिखे नही तकलीफ ।

चोट लगे जिस पांव में ,

दर्द उसी को होय ,

कांटा न चुभा हो जिसे,

वो जाने दर्द क्या होय।

पैसों के दम पर रहे जो ,

सुख सुविधाए खरीद।

भूखे सोये गरीब की ,

समझे नही तकलीफ।

ऐसी कमरे में बैठकर,

खाय रहे पकवान।

आधा खाया आधा फेंका ,

कुछ भी नही मलाल।

भीषण सर्दी और गर्मी में

काम करे जो किसान ।

बेमौसम की मार ने,

जीना किया बेहाल।

उस किसान की पीर को ,

यहां न समझे न कोय ।

सबकी अपनी ढपली है

यहां सबके अपने राग।

दूजे की कोई सुने नही ,

सब अपनी रहे अलाप।

रूबी चेतन शुक्ला

अलीगंज

लखनऊ

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