सावन बीता जा रहा है (कविता) -07-Aug-2024
सावन बीता जा रहा है
सावन मास के आते ही दुल्हन सी धरा सज जाती थी, रोपनीहारिन रोपनी के संग में मादक गीतों को गाती थी। मोटी रोटी गुड़ और प्याज से खुशियों के संग वो खाती थी, गुड का शरबत दही के संग में बाल्टी भरकर ले जाती थी। आधुनिकता के दौर में बस कुंठा ही जीता जा रहा है, खेतों में ना कोई रंगत सावन बस बीता जा रहा है।
8-10 एकड़ खेत मशीन रोपनी दिन में करती, जनमानस में भरे विषाद को पर क्या वो है हर सकती। खेतों की हैं मेड़ें हैं सूनीं हंँसी- ठिठोली अब है थकती, औद्योगिकीकरण क्या आया निष्ठुर हो दुनिया अब तकती। आज दरकते रिश्तों को क्या कोई बचा रहा है, जीवों पर अब दया करो प्रभु सावन बीता जा रहा है।
साधना शाही, वाराणसी, उत्तर प्रदेश