Sadhana Shahi

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कठपुतली सा जीवन( कविता) -09-Aug-2024

कठपुतली सा जीवन

कठपुतली अपने जीवन को परमारथ में जीती, दूजा उसको नाच नचाता हँस परतंत्रता ज़हर को पीती।

बाँध सकल शरीर में धागा उसको पीड़ा पहुंँचाए, यही है रोजी- रोटी देती गुलाम यही बन जाए।

उस जैसे ही नारी को भी पुरुष जिलाना चाहे, उसकी इच्छा का मोल न कोई हर अपना उसको डाहे।

कठपुतली के जैसे जीवन ना जीना मुझे जग में, आत्मा द्रविभूत है करता नीरवता भरे रग में।

कठपुतली बन चुके मनुष्य को नाम की मिली आज़ादी, उसका जीवन दफ़न हो गया सद्गुण की हुई बर्बादी।

दूजे के निर्देश को मानें ना कोई अपनी मर्ज़ी, अपनी व्यथा वो किसे सुनाएंँ दें वो किसको अर्जी।

कठपुतली का जीवन जीना पराधीनता की है निशानी, कठपुतली परिजन को बना संक्रामक रोग उनहें फैलानी।

फिर शोषण गोरों सा ककरेंगे अपने ही घर में होंगे गुलाम। काम कितना भी उत्तम कर लें होंगे सदा ही हम बदनाम।

साधना शाही, वाराणसी, उत्तर प्रदेश

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1 Comments

Arti khamborkar

21-Sep-2024 09:22 AM

amazing thought

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