बाग़ो बहार
जब सुबह हुई
और आफताब दो नेजे बुलंद हुआ , तब मेरी आँख खुली ,तो देखा मैंने ,न वह तैयारी है ,न
वह मजलिस न वह परी। सिर्फ एक खाली हवेली पड़ी है। मगर एक कोने में कम्बल लिपटा हुआ धरा
है। जो उसको खोल कर देखा तो वह जवान और उसकी
औरत दोनों सर कटे पड़े है। यह हालत देख कर हवास जाते रहे। अक़्ल कुछ काम नहीं करती की यह क्या था और क्या हुआ हैरानी से
हर तरफ देख रहा था। इतने में एक ख्वाजा सिरा जिसे
ज़ियाफ़त के काम काज में देखा था नज़र पड़ा। फ़क़ीर को उसको देखने से कुछ तसल्ली हुई अहवाल इस वारदात का पूछा .उसने जवाब दिया : तुझे इस बात की तहक़ीक़ करने से
क्या हासिल। जो तू पूछता है ? मैंने भी अपने दिल में गौर की की सच तो कहता है। फिर एक ज़रा हिम्मत करके बोलै : खैर
न कहो ,भला यह तो बताओ वह माशूक़ा किस मकान में है। तब उसने कहा : अलबत्ता जो मैं जनता
हु वह कह दूंगा लेकिन तुझसे आदमी अक़्ल मंद ,बे मर्ज़ी हुज़ूर के ,दो दिन की दोस्ती पर
बे तकल्लुफ हो कर ,सोहबत में नोशी की बहम गर्म करे। यह क्या मायने रखता है।
फ़क़ीर अपनी हरकत और उसकी नसीहत से नदीम हुआ। सिवाए इस बात के ज़बान से कुछ न निकला : हकीकत अब तो फैल गयी माफ़ कीजिये। बारे मोहल्ला की मेहरबान हो कर ,इस परी के मकान का निशान बताया और मुझे रुखसत किया आप इन दोनों ज़ख़्मियो के गाड़ने और दबाने की फ़िक्र में लगा रहा। मैं तोहमत से उस फसाद की अलग हुआ और इश्तियाक़ में इस परी के मिलने के लिए ,घबराया हुस और गिरता पड़ता ,ढूंढता शाम के वक़्त इस कूचे में इसी पते पर जा पंहुचा ,और नज़दीक दरवाज़े के एक गोशे में सारी रात बे सुकुनि में कटी किसी की आने जाने की आहट न मिली ,और कोई अहवाल पुरसा मेरा न हुआ। इसी बे कसी के हालत में सुबह हो गयी। जब सूरज निकला उस मकान के बाला खाने की एक खिड़की से वह माह मेरी तरफ देखने लगी। इस वक़्त आलम ख़ुशी के जो मुझ पर गुज़रा दिल ही जानता है शुक्र खुदा का किया।
इतने में एक
खुजे ने मेरे पास आकर कहा। इस मस्जिद में जाकर
तू बैठ शायद तेरा मतलब उस जगह पर आए और दिल की मुराद पाए .फ़क़ीर फरमाने से उसके वहा से उठ कर उसी मस्जिद में
जा रहा ,लेकिन आंखे दरवाज़े की तरफ लग रही थी।
की देखिये पर्दा गैब से क्या ज़ाहिर होता है। तमाम दिन जैसे रोज़ादार शाम होने का इंतज़ार
खींचता है। मैंने भी रोज़ा वैसे ही बे करारी
में काटा। जिस जिस तरह से शाम हुई और दिन पहाड़ सा छाती पर से टला। एक बारगी वही ख्वाजा
सिरा मस्जिद में आया। मगरिब की नमाज़ के बाद मेरे पास आकर इस नरमी से कहा निहायत तसल्ल्ली
देकर ,हाथ पकड़ लिया और अपने साथ ले चला। रफ्ता रफ्ता एक बगीचे में मुझे बिठा करा कहा : यहाँ
रहो जब तक तुम्हारे आरज़ू पूरी न आये। और आप रुखसत होकर शायद मेरी हकीकत हुज़ूर में कहने
गया। मैं उस बाग़ की फूलो की बहार और चांदनी का आलम ,और हौज़ नहरों में फव्वारे सावन
भादो के उछलने का तमाशा देख रहा था। लेकिन
जब फूलो को देखता तब उस गुल बदन का ख्याल आता ,जब चाँद पर नज़र पड़ती ,तब उस माह रु का मुखड़ा याद आता। यह सब बहार के
बगैर मेरी आँखों में खार थी।
बारे खुदा ने उसके दिल को मेहरबान किया। एक दम के बाद वह परी दरवाज़े से जैसे चौदहवी की रात का चाँद ,बनाओ किये ,गले में पिशवाज बाद लेकर मोतियों का दरों दामन टिका हुआ और सर पर ओढ़नी जिसमे आँचल पल्लू, सर से पाव तक मोतियों में जड़ी रोश पर आकर खड़ी हुई। उसके आने से तरो ताज़गी नए सर से इस बाग़ को और फ़क़ीर के दिल को हो गयी। एकदम इधर उधर सैर कर शह नशीन में मसनद पर तकिया लगा कर बैठी। मैं दौड़ कर परवाने की तरह हाज़िर हुआ और गुलाम के मानिंद दोनों हाथ जोड़ कर खड़ा हुआ। उसमे वह खुजा मेरी खातिर बा तौर सिफ़रिश के अर्ज़ करने लगा। मैंने कहा : बंदा गुनहगार हाज़िर है। जो कुछ सजा मेरे लायक ठहरे सो हो। वह परी न खुश थी। बददिमागी से बोली की अब इसके हक़ में यही भला है की सो तोड़े अशर्फी ले ले अपना असबाब सुरुस्त करके ,वतन को सुधारे।
मैं यह बात सुनते
ही काठ सूख गया ,की अगर कोई मेरे बदन को काटे
तो एक बून्द लहू की न निकले ,और तमाम दुनिया
आँखों के आगे अँधेरी लगने लगे। और एक आह न मुरादी की बेइख्तियार जिगर से निकली ,आंसू
भी टपकने लगे। सिवाए खुदा के इस वक़्त किसी
की तवक़्क़ो न रही ,मायूस महज़ होकर इतना बोला : भला अपने दिल गौर फरमाइए ,अगर मुझ
कम नसीब को दुनिया का लालच होता तो अपना जान व माल हुज़ूर में न खोता। क्या एक
बारगी हक़ खिदमत गुज़री और जान निसारी का आलम
से उठ गया। जो मुझ से कम बख्त पर इतनी बे मुहरी फ़रमाई ? खैर ,अब मेरे अंदर भी ज़िन्दगी से कुछ काम
नहीं। माशूक़ो की बे वफाई से बेचारे आशिक़ ए नीम
जान का निबाह नहीं होता।
यह सुन कर तीखी हो ,तेवरी चढ़ा कर खफ़गी से बोली ; खुश !आप हमारे आशिक़ है ? मेंढकी को भी ज़ुखाम हुआ ! अये बेवक़ूफ़ ! अपने हौसले से ज़्यादा बाते बनाने ख्याल खांम है। छोटा मुँह बड़ी बाते ,बस चुप रह ,यह निकम्मी बात चीत मत कर ,अगर किसी और ने यह हरकत बे मायने की होती ,परवरदिगार की सू ,उसकी बोटिया कटवा चीलों को बाटती पर क्या करू ? तेरी खिदमत याद आती है। इसी में भलाई है की अपनी राह ले ,तेरी क़िस्मत का दाना पानी हमारे सरकार में यही तलक था। फिर मैंने रोते बसुरते कहा : अगर मेरी तक़दीर में यही लिखा है की अपने दिल के मक़सद को न पहचुँ और जंगल पहाड़ में सर टकराता फिरू ,तो लाचार हूँ। इस बात पर वह कहने लगी : मुझे चोचले और मजकि बात पसंद नहीं आती ,इस इशारे की गुफ्तुगू के जो लायक हो ,उससे जाकर कर। फिर इस खफ़गी के आलम में उठ कर अपने दौलत खाने में चली। मैंने सर पटका पर वह न मुड़ी। लाचार में भी उस मकान से उदास और न उम्मीद होकर लौटा।
गरज़ चलीस दिन तक यही नौबत रही ,जब शहर की कुचा गर्दी से उकताता ,जंगल में निकल जाता ,जब वहा से घबराता की , फिर शहर की गलियों में दीवाना सा आता। न दिन को खता न रात को सोता जैसे धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का। ज़िन्दगी इंसान की खाने पीने से है ,आदमी अनाज का कीड़ा है ,ताक़त बदन में न रही ,अपाहिज होकर उसी मस्जिद की दीवार के तले जा पड़ा। की एक रोज़ वही ख्वाजा सिरा जुमे की नमाज़ पढ़ने आया। मेरे पास से होकर चला ,
अगरचे ज़ाहिर में मेरी सूरत बदल गयी थी ,चेहरे की यह शक्ल बनी थी की जिनने मुझे पहले देखा वह भी न पहचान सकता की वही आदमी है लेकिन वह आवाज़ दर्द का सुन कर मुड़ा मेरे हालत को देख कर अफ़सोस किया और शफ़क़त से मुखातिब हुआ की आखिर यह हालत अपनी पहुंचाई। मैंने कहा : अब तो जो हुआ सो हुआ माल से भी हाज़िर था ,जान भी सदक़ किया ,उसकी ख़ुशी युही हुई तो क्या करू ?
यह सुन कर एक खिदमत गार मेरे पास छोड़ कर ,मस्जिद में गया ,नमाज़ खुत्बा के बाद जब बहार निकला ,फ़क़ीर को एक मियाने में डाल कर होने साथ खिदमत में उस परी बे परवाह की ले जाकर बाहर बिठाया। अगरचे मेरी रूह कुछ बाक़ी न रही थी ,पर मुद्दत तलक शब् व रोज़ उस परी के पास इत्तेफ़ाक़ रहने का हुआ था , जान बूझ कर बे गानी होकर खुजे से पूछने लगी : यह कौन है ? उस मर्द आदमी ने कहा : यह वही कम्बख्त है बद नसीब है जो हुज़ूर की खफ़गी में पड़ा था। इसी सबब से उसकी यह सूरत बनी है इश्क़ की आग से जला जाता है , हर चंद आंसू की पानी से बुझाता है ,पर वह दूनी भड़कती है। कुछ फायदा नहीं होता ,परी ने ठिठोली से बोला : क्यू झूट बकता है ? बहुत दीन हुए उसकी खबर वतन पहुंचने की मुझे ख़बरदारो ने दी है। अल्लाह जाने यह कौन है .और तू किसका ज़िक्र करता है उस दम ख्वाजा ने हाथ जोड़ कर इल्तेमास की : अगर जान की अमान पाओ तो अर्ज़ करू .फ़रमाया : कह ते तेरी जान तुझे बख्शी। खुजा बोला : आपकी ज़ात क़द्रदान है ,वास्ते खुदा के चिलवन को दरमियान से उठवा कर पहचानिये ,और इसकी बे कसी की हालत पर रहम कीजिये। न हक़ शनासी खूब नहीं। अब इसके अहवाल पर जो कुछ तरस खाइये। बजा है और जाये सवाब है ,आगे अदब ,जो मिज़ाज मुबारक में आये सो ही बेहतर है।
इतने कहने पर
मुस्कुरा कर फ़रमाया : भला कोई हो ,इसे अपनी
शिफा में रखो , जब भला चंगा होगा ,तब उसके अहवाल की परस्तिश की जाएगी। खुजे ने कहा
: अगर अपने दस्त खास से गुलाब इसपर छिड़किये और ज़बान से कुछ फरमाईये ,तो उसको अपने जीने का भरोसा बंधे ,न उमीदी बुरी
चीज़ है ,दुनिया उम्मीद पर क़ायम है। इस पर भी उस परी ने कुछ न कहा .यह सवाल जवाब सुन कर मैं भी अपने जी से उक्ता रहा
था। बे धड़क बोल उठा की अब इस तौर की ज़िन्दगी
को दिल नहीं चाहता ,पाव तो गौर में लटका चूका हु ,एक रोज़ मरना है ,और इलाज मेरा बादशाह ज़ादी के हाथ में है करे या न करे वह जाने। इस संग
दिल के दिल को नरम किया। मेहरबान होकर फ़रमाया
: जल्द बादशाही हकीमो को हाज़िर करो। वह तबीब आकर जमा हुए। नस देख कर बहुत गौर
की ,आखरी तशख़ीस में ठहरा की यह शख्स कही आशिक़
हुआ है। सिवाए वस्ल माशूक़ के ,उसका कुछ इलाज नहीं। जिस वक़्त वह मिले ,यह सेहत पाए। जब हकीमो की ज़बानी यही मर्ज़ मेरा
साबित हुआ ,हुक्म किया : इस जवान को गरमा में ले जाओ नहला कर ,खासी पोशाक पहना कर ,हुज़ूर में ले आओ।
वह नहीं मुझे बाहर ले गए। हम्माम करवा ,अच्छे
कपडे पहना ,खिदमत में परी की हाज़िर किया। तब वह नाज़नीन तपाक से बोली : तूने मुझे बैठे बिठाये न हक़ बदनाम और रुस्वा किया ,अब और क्या किया
चाहता है ? जो तेरे दिल में है साफ़ साफ़ बयान कर।
या फुकरा ! इस वक़्त यह आलम हुआ की शादी मर्ग हो जाऊ ,ख़ुशी के मारे ऐसा फूला की जामे नहीं समाता था ,और सूरत शक्ल बदल गयी। शुक्र खुदा का किया और उससे कहा : इस दम सारी हकीमी आपणपर खत्म हुई की मुझसे मुर्दे को एक बात में ज़िंदा किया देखु तो इस वक़्त से उस वक़्त तक मेरे अहवाल में क्या फ़र्क़ हो गया ? ये कह कर तीन बार गिर्द फिरा और सामने आकर खड़ा हुआ और कहा : हुज़ूर से यह हुक्म होता है की जो तेरे जी में हो सो कह , बंदे को हफत अकलीम से ज़्यादा यह है की गरीब नवाज़ी करकर इस अजीज़ को क़ुबूल कीजिये ,और अपनी क़दम बोसी से सरफ़राज़ी दीजिये। एक लम्हा तो सुन कर ,गोते में गयी ,फिर किन अँखियो से देख कर कहा : बैठो ,तुमने खिदमत और वफादारी ऐसी ही की है ,जो कुछ कहो और अपने दिल पर नक़्श है खैर हमने क़ुबूल किया .
उसी दिन अच्छी
घड़ी शुभ लगन में ,चुपके चुपके क़ाज़ी ने निकाह पढ़ा दिया। इतनी मेहनत और आफत के ,खुदा ने यह दिन दिखाया की मैंने अपने दिल का दुआ पाया। लेकिन जैसी दिल में आरज़ू इस परी से हम बिस्तर
होने की थी ,वैसे ही जी में बे कली इस वारदाते
अजीब के मालूम करने की थी ,की आज तक मैंने कुछ न समझा यह परी कौन है ? और वह हब्शी
सनौला सजीला कौन था ? और तैयारी ज़ियाफ़त की
बादशाहो के लायक ,एक पहर में क्यू हुई ? और वह दोनों बे गुनाह उस मजलिस में किसलिए मारे
गए ? और सबब नाराज़गी मुझ पर क्या हुआ ? और फिर
एक बारगी इस अजीज़ को यु सर बुलंद किया ? गरज़ इसी वास्ते ,बाद रस्म रसूमात अक़्द
के आठ दिन तलक ,बा वसफ़े उस इश्तियाक़ रात को साथ सोता ,दिन को युही उठ खड़ा होता।