बाग़ो बहार
एक दिन ग़ुस्ल
करने के लियए ,मैंने ख्वास को कहा की थोड़ा पानी गर्म कर दे तो नहाऊ। मलका मुस्कुरा
कर बोली : किस बरते पर तत्ता पानी ? मैं खमोश हो रहा ,लेकिन वह परी मेरी
हरकत से हैरान रही। बल्कि चेहरे पर नाराज़गी
थी। यहाँ तलक की एक रोज़ बोली : तुम भी अजब आदमी हो। या इतने गर्म ,या ऐसे ठन्डे।
इसको क्या कहते है ? अगर तुम में ताक़त न थी
तो क्यू ऐसी कच्ची हवस पकाई ? उस वक़्त मैंने बे धड़क होकर बोला : अये जानी ! मनसाफि
शर्त ,आदमी को चाहिए की इन्साफ से न चुके। बोली : अब क्या इंसाफ रह गया है
? जो कुछ होना था सो हो चूका। फ़क़ीर ने कहा
: सच में ,बड़ी आरज़ू और मुराद मेरी यही थी
,सो मुझे , मिली लेकिन दिल मेरा दुबधे में है ,और दो दिले आदमी के लिए परेशान
रहती है। उससे कुछ हो नहीं सकता ,इंसनियत से ख़ारिज हो जाता है। मैंने
अपने दिल में यह क़ौल किया था की बाद उस निकाह के बाज़ बअज़ बाते हुज़ूर में पूछूंगा
,की ज़बान मुबारक से उस का बयांन सुनु तो जी
को तस्कीन हो। उस परी बे जबी होकर कहा : क्या खूब ! अभी से भूल गए .याद करो ,बारहा हमने कहा की मैं हरगिज़ दखल न कीजिये।
और किसी बात के गरज़ न हो जो ख़िलाफ़े मामूल बे अदबी
करनी क्या लाज़िम है ? फ़क़ीर ने हंस ने हंस कर कहा : जैसी और बे अदबिया माफ़ करने
का हुक्म है ,एक ये भी सही। वह परी नज़रे बदल
कर तैश में आकर ,आग बगुला बन गयी और बोली :
अब तू बहुत सर चढ़ा ? !जा अपना काम कर ,इन बातो से तुझे क्या फायदा होगा
? मैंने कहा : दुनिया में अपनी बदन की शर्म सबसे ज़्यादा होती है ,लेकिन एक दूसरे का वाक़िफ़ कार होता है , पस जब ऐसी
चीज़ दिल पर रवा रखी ,तो और कौन सा भेद छिपाने
के लायक है ?
मेरी इस रमज़ को वह परी वक़ूफ़ से दरयाफ्त कर कर ,कहने लगी : यह बात सच है ,पर जी में यह सोच आता है की अगर मुझ निगोड़ी का राज़ फाश बड़ी क़यामत मचे। मैं बोला : यह क्या मज़कूर है ? बंदे की तरफ से यह ख्याल मत लाओ ,और ख़ुशी से सारी कैफियत जो बीती है ,फरमाओ हरगिज़ हरगिज़ दिल से ज़बान तक न लाऊंगा .किसी के कान पड़ना क्या इमकान है। जब उसने देखा की अब सिवाए कहने के इस अज़ीज़ से छुटकारा नहीं। लाचार होकर बोली : इन बातो के कहने से बहुत सी खराबियाँ है तो ख़्वाह मखाह दरपे हुआ। खैर तेरी खातिर अज़ीज़ है ,इसलिए अपनी पिछले क़िस्सा बताती हु ,तुझे भी उसका पोशीदा रखना ज़रूर है ,खबर शर्त।
गरज़ बहुत सी
ताकीद कर कर कहने लगी : मैं बदबख्त मलके दमिश्क़
के सुलतान की बेटी हु और वह सलातीनो से बड़ा बादशाह है। सिवाए मेरे ,कोई लड़का बाला उसके यहाँ नहीं हुआ।
जिस दिन से मैं पैदा हुई। माँ बाप साये में
नाज़ व नेमत और ख़ुशी पली। जब होश आया तब अपने दिल को खूबसुरतो और नाज़नीनों के
साथ लगाया। चुनांचा सुथरी सुथरी परीजाद हम
जोली उमरा जादिया अच्छी अच्छी सहेलिय खिदमत
में रहती थी। तमाशा ,नाच और राग रंग का हमेशा
देखा करती। दुनिया के भले बुरे से कुछ मतलब न था ,अपनी बे फ़िक्री के आलम को देखा कर
सिवाए खुदा के शुक्र के ,मुँह से न निकलता
था।
अचानक तबिअयत खुद बा खुद ऐसी बे मज़ा हुई की न मुहब्बत किसी की भाये। न मजलिस ख़ुशी की खुश आये आये। सौदाई सा मिज़ाज हो गया ,दिल उदास और हैरान ! न किसी की सूरत अच्छी लगे ,न बात कहने और न सुनने को जी चाहे .मेरी यह हालत देख कर दायी ,दवा , सबकी सब फ़िक्र मंद हुई। और क़दम पर गिरने लगी। यही ख्वाजा सिरा नमक हलाल ,क़दीम से मेरा महरम और हम राज़ है , उससे कोई बात छुपी न रही। मेरी वहशत देख कर बोला की अगर बादशाह ज़ादी थोड़ा सा शरबत वर्क ख्याल का नोश फार्मा लीजिये। तो तबियत बहाल हो जाये और फरहत मिज़ाज में आये। उसके इस तरह से कहने से मुझे भी शौक़ हुआ ,तब मैंने फ़रमाया : जल्दी हाज़िर कर।
ख्वाजा बाहर गया और एक सुराही इसी शरबत की तकल्लुफ से बना कर ,बर्फ में लगा कर लड़के के हाथ लिवा कर आया .मैंने पिया ,जो कुछ उसका फायदा ब्यान किया था वैसा ही देखा। उसी वक़्त इस खिदमत के इनआम में एक भारी खुजे को इनायत की और हुक्म किया की सुराही हमेशा बिला नागा इसी वक़्त हाज़िर किया। कर उस दिन वह मुक़र्रर हुआ की ख्वाजा सिरा सुराही उसी छोकरे के साथ ले आये। और बंदी पी जाये। जब उसका नशा चढ़ता गया। तो उसकी लहर में उस लड़के से ठठा ,मज़ाक़ कर कर ,दिल बहलाती थी। वह भी जब ढीढ हुआ ,तब अच्छी अच्छी मीठी मीठी बाते करने लगा और बल्कि आह ओह्ह भी भरने और सिसकिया लेने लगता। सूरत तो उसकी तरह दार ,लायक देखने की थी ,बे इख़्तियार जी चाहने लगा। मैं दिल के शौक़ से हर रोज़ इनाम बख्शीश देने लगी ,पर वह कम्भख्त वैसे ही कपड़ो से हुज़ूर में आता। बल्कि वह लिबास भी मैला कुचला हो जाता।
एक दिन पूछा : तुझे सरकार से इतना कुछ मिला ,पर तूने अपनी सूरत वैसी की वैसी ही परेशान बना रखी है। क्या सबब है सारे रुपये कहा खर्च किये। यह जमा कर रखे ? लड़के ने बे खातिर दारी की बाते जो सुने ,और मुझे अहवाल पुरसिया पाया ,आंसू डबडबा कर कहने लगा : जो कुछ आपने इस गुलाम को इनायत किया ,सब उस्दाद ने लेलिया। मुझे एक पैसा नहीं दिया ,और कहा से दूसरे कपड़े बनाऊ। जो पहन कर हुज़ूर में आऊं ? उसमे मेरी कोई क़ुसूर नहीं मैं लाचार हु। इस गरीबी के कहने पर उसके तरस आया ,उसने ख्वाजा सिरा को फ़रमाया की आजसे इस लड़के को अपनी सोहबत में तरबियत कर। और अच्छा लिबास तैयार करवा कर पहना ,और लड़कियों में बे फायदा खेलने कूदने न दे ,बल्कि अपनी ख़ुशी यह है की आदाब ,लायक हुज़ूर की खिदमत के सीखे और हाज़िर रहे .ख्वाजा सिरा मवाफ़िक़ फरमाने के बजा लाये। और मेरी मर्ज़ी जो इधर उधर देखि ,निहायत इसकी खबर गिरी करने लगा। थोड़े दिनों में फरागत और खुश खोरी के सबब से उसका रंग रोगन कुछ का कुछ हो गया .और मैं अपने दिल को हर चंद संभालती पर उस काफिर की सूरत जी में ऐसी खब गयी थी ,यही जी चाहता के मारे प्यार के उसे कलेजे में डाल रखु। और अपनी आँखों से एक पल जुदा न करू।
आखिर उसको मुसाहेबत में दाखिल किया ,और जवाहर रंग बा रंग के पहना कर देखा करती। बारे उसके नज़दीक रहने से आँखों को सुख और कलेजे को ठंढक मिलती। हरदम उसकी खातिरदारी करती। आखिरकार मेरी यह हालत पहुंची की अगर एकदम कुछ ज़रूरी काम को मेरे सामने से जाया जाता तो चैन न आता। बाद कई बरस बालिग हुआ ,मसे भीगने लगी। चब तख्ती दुरुस्त हुई ,तब उसका चर्चा दरबारियों में होने लगा। दरबान ,मेवड़े ,बारीदार ,चोबदार ,उसको महल के अंदर आने जाने से मना करने लगे ,आखिर उसका आना बंद हुआ। मुझे तो उसके बगैर कल न होती थी। एकदम पहाड़ था। जब यह अहवाल न उमीदी का सुना ,ऐसी बदहवास हो गयी ,गोया मुझ पर क़यामत टूटी। और यह हालत हुई की न कुछ कह सकती हु। न उस बिन रह सकती हु ,कुछ बस नहीं चल सकता ,इलाही क्या करू ! अजब तरह का क़लक़ हुआ मारे बे करारी के उसी ख्वाजा सिरा को बुला कर कहा मुझे गौर और पुर दाखत उस लड़के की मंज़ूर है सलाह वक़्त है की हज़ार अशर्फी पूजी देकर ,चौक के चौराहे में दुकान जोहरी की करवा दो तो तिजारत करके ,उसकी नफ़अ से अपनी गुजरान फरागत से किया करे। और मेरे महल के क़रीब .एक हवेली अच्छे नक़्शे की रहने के लिए बनवा दो। लड़किया गुलाम ,नौकर चाकर ,जो ज़रूर हो मोल लेकर और दिरहैम मुक़र्रर कर कर। उसके पास रखवा दो ,की किसी तरह बेआराम न हो। ख्वाजा सिरा ने उसकी बूद व बाश की और जोहरी पन्ने और तिजारत की सब तैयारी करदी। थोड़े अरसे में उसकी दुकान ऐसी चमकी और नमूद हुई की जो फखरा और जवाहर बेश क़ीमत। सरकार में बादशाह की अमीरो की दरकार व मतलूब होते ,उसी के यहाँ आ जाते ,आहिस्ता आहिस्ता यह दुकान जमी ,की जो तोहफा हर एक मुल्क का चाहिए ,वही मिले। सब जोहरी का रोज़गार उसके आगे मंदा हो गया। गरज़ उस शहर में कोई बराबरी उसकी न कर सकता .बल्कि किसी मुल्क में वैसा कोई न था।
इसी कारोबार में तो उसने इतना रूपये कमाए। पर जुदाई उसकी रोज़ ब रोज़ नुकसान मेरे तन बदन का करने लगी। कोई तदबीर न बन आयी की उसको देख कर अपने दिल की तसल्ली करू। निदान सलाह की खातिर उसी वाक़िफ़ कार को बुलाया। और कहा की किसी भी सूरत बन नहीं आती की ज़रा उसकी सूरत मैं देखु और अपनी जान को सब्र करू। मगर यह तरह है की एक सुरंग उसकी हवेली से खुदवा कर महल में मिला दू। हुक्म करते ही कई दिनों में ऐसी नकब तैयार हुई ,की जबसे साँझ होती ,चुपके ही ख्वाजा सिरा उस जवान को उसी राह से ले आता। तमाम शब शराब ,कबाब ऐश व इशरत मे कटती। मैं उसके मिलने से आराम पाती। वह मेरे देखने से खुश होता .जब फज्र का तारा निकलता और अज़ान होती ख्वाजा उसी राह से उस जवान को उसके घर पंहुचा देता। इन बातो से सिवाए खुजे के और दो दाइयो के चौथा आदमी कोई वाक़िफ़ न था।
एक मुद्दत इस तरह से गुज़री। एक रोज़ का यह ज़िक्र है की माफ़िक़
मामूल के।, खुजा जब उसको बुलाने गया ,देखे
तो वह जवान फ़िक्र मंद सा चिपका बैठा है। खुजा ने पूछा : आज खैर है क्यू ऐसी
दिल गिर हो ? चलो हुज़ूर में याद फ़रमाया है। उसने कुछ
जवाब न दिया ,ज़बान न हिलायी ख्वाजा
सिरा अपना सा मुँह लेकर अकेला फिर आया .और अहवाला उसका अर्ज़ किया। उस पर मुहब्बत उसकी
दिल से न भूली। अगर यह जानती की इश्क़ और चाह ऐसे नमक हराम बे वफाई की ,आखिर वह बदनाम
और रुस्वा करेगी और नंग व नामूस सब ठिकाने लगेगा
तो उसी दम उस काम से बाज़ आजाती और तौबा करती फिर उसका नाम न लेती और न पाना
दिल उस बेहया को देती। पर होना तो यु था इसलिए
हरकत बेजा उसकी खातिर में न लायी , और उसके न आने को माशूको का चोचला और नाज़ समझा।
उसका नतीजा यह देखा की सर गुज़िश्ता बगैर देखे
भाले तो भी वाक़िफ़ हुआ ,नहीं तो मैं कहा और
तू कहा ? खैर जो हुआ सो हुआ। इस दिमाग पर उस गधे की ख्याल न कर ,दुबारा खुजे के हाथ पैगाम भेजा की
अगर तू इस वक़्त नहीं आएगा तो मैं किसी न किसी तरह से वहा आती हु। लेकिन मेरे आने में बड़ी परेशानी है अगर यह राज़ फाश हुआ तो तेरे हक़ में बहुत
बुरा है। ऐसा काम न कर ,जिसमे सिवाए रुस्वाई के कुछ फल न मिले। बेहतर यही है की जल्द चला आ नहीं तो
मुझे पंहुचा जान। जब यह संदेसा गया और इश्तियाक़ मेरा नापित देखा ,भोंडी सी सूरत बनाये हुए नाज़ नखरे से आया।