ग़ज़ल
🌹🌹🌹🌹🌹* ग़ज़ल * 🌹🌹🌹🌹
तरब अफ़्ज़ा,निगाह-ए-शौक़ के क़ाबिल समझते हैं।
तिरे कुन्ज-ए-दहन को हम मह-ए-कामिल समझते हैं।
कहां ले आई हम को हाय तेरे फ़िक्र की दुनिया।
कोई मेह़फ़िल हो हम उसको तिरी मेह़फ़िल समझते है।
ज़ुबां खोलूं तो उड़ जाएंगे उनके होश के ताइर।
मिरी ख़ामोशियों से जो मुझे बुज़-दिल समझते हैं।
वो कैसे कर सकेंगे काम कोई पायदार आख़िर।
जो कस्ब-ए-ग़ैर मुस्तह़कम को भी मुश्किल समझते हैं।
फ़राहम जो कराता है दवा फ़रबा दलाली पर।
हम ऐसे चारागर को हमसर-ए-क़ातिल समझते हैं।
मैं कब के सी चुका ज़ख़्म-ए-तमन्ना क़ल्बे-मुज़तर के।
मगर मुझको वो अब भी ताइर-ए-बिस्मिल समझते हैं।
लगा कर ठोकरें इन पर ही बहला लेते हैं ख़ुद को।
वो संग-ए-रहगुज़र को भी हमारा दिल समझते हैं।
जो ख़ुद हैं स़ादिक़-उल-वअ़दा समझते हैं हमें स़ादिक़।
जो ख़ुद बातिल हैं बस वो ही हमें बातिल समझते हैं।
ज़लालत का उन्हें मुंह देखना पड़ता ही इक दिन।
अमीर-ए-शहर के चमचों को जो फ़ाज़िल समझते हैं।
वो भटका कर हमें राहों में ख़ुश हैं तो रहें लेकिन।
फ़राज़ अब भी उन्हें हम रहबर-ए-मन्ज़िल समझते हैं।
सरफ़राज़ हुसैन फ़राज़ पीपलसाना मुरादाबाद उ0प्र0।
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hema mohril
26-Mar-2025 05:01 AM
amazing
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