कविता—आईना--दो शब्द
राजीव रावत
आजकल
जब तुम चुपके चुपके देखती हो आईना
चमकती श्वेत लट,
पेशानी पर हल्की सी लकीरे देख कर
एक पल ठिठक जाती हो --
न जानें क्यों
उम्र की देती हुई दस्तक पर कुछ सहम जाती हो-
यही है आईना
जो तुम्हारे नशीली चितवन
लरजते होठों और चांद से चैहरे को देखकर अंदर से चटक जाता था-
लेकिन तुम्हारी खूबसूरती के
सत्य को कहां झुठला पाता था-
उथले पानी में
अक्सर कीचड़ होता है
कौन नहीं जानता जीवन की सच्चाई को-
आईना तो बाहर रूप को ही देखता है
भला कहां मांप पाता है
अंदर बहते हुए शीतल पावन झरने की गहराई को-
कौन कहता है कि
उम्र की दरिया में बह कर तुम कतरा कतरा बिखर गयी हो--
मेरे दिल से पूंछो
उम्र की अग्नि में, अनुभव और अहसासों चोट से कुंदन सी निखर गयी हो-
जब भी झांकोगी मेरे दिल-ए-आईना में
तुम्हारे अंदर आज भी
प्रेम, विश्वास, निश्कलंक सुंदरता का
स्निग्ध, शीतलता का मधुर दरिया बहता है-
तुम आज भी उतनी हसीन हो
मेरी नजरों में,
यह आईना कहां झांक पाता है
तुम्हारे अंतर्मन में
सच तो यह है
यह आज भी तुम्हारे हुश्न से जलता है
इसलिये झूठ कहता है-
राजीव रावत
भोपाल (म0प्र0)
🤫
11-Nov-2021 07:01 PM
बेहतरीन...
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Author sid
11-Nov-2021 05:57 PM
👍👍👍
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Seema Priyadarshini sahay
11-Nov-2021 05:37 PM
बहुत खूबसूरत रचना
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