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बचपन- एक जमाना था

बचपन,वही होता है न् जब हम पत्ते की पूरियां बनाते है।

बचपन,वही होता है न् जब हम मिट्टी के घरौंदे बनाते है।
बचपन,वही होता है न् जब हम चवनि में सब कुछ खरीद सकते है।

मेरे बचपन की कहानी- मेरे घर के बगल में एक घर जिससे मेरी बचपन की सारी यादें जुड़ी हुई है,जहां हम सारे दोस्त मिलकर जाते और आंख मूंदकर बाघ और भूत के सपने देखते थे।
फिर कोई शिक्षक बनता कोई छात्र फिर पढने पढ़ाने का नाटक करते थे,पपीता खाते , भांतकुवाँ की चटनी खाते, पत्ते की पूरियां बनाते।
और, शाम को घर जाने से पहले शिकायत चली जाती थी।
लेकिन मेरा बचपन बहुत सुहाना था नीम-पीपल के नीचे बीते हमारे बचपन के किस्से आज भी उनके डालियों में है।
बरसात के सुहाने मौसम में हम सारे दोस्त सड़क पर जाते और पानी को रोक करकर वही नहाते और गांव की सौंधी मिट्टी की महक को महसूस करते थे।
गर्मी के दिन में दादी के पास जाकर सोता था फिर दादी पंखा करती थी कहानियों के साथ और खाने से पहले ही नींद में मैं चला जाता था,
जब रात को पापा आते थे तब आंखों पर पानी मारकर जगाते थे।
बचपन मे रोज़ सोचते कि आज स्कूल नही जाना है,,लेकिन आज पता चलता है स्कूल नही जन्नत थी वो हमारी।
जारे के दिन में सारे दोस्त हम रंग-बिरंगी कपडे पहनते थे और पकड़म पकड़ाई खेलते थे फिर शाम को द्वार पर आग जलया जाता था जहां सभी लोग इकट्ठा होते थे और कभी हम भी उनके बीच जाकर उनका हिस्सा बन जाते।।
जब बच्चे थे तब सोचते थे कि कब बरे होंगे और जब बड़े हुए तो कोशिश करते है कि कोई लौटा दे वो बुढ़िया के बाल खाने वाला दिन।
कोई लौटा दी अनाज से मलाईबर्फ खाने वाला दिन।
जो असम्भव है।
बचपन मे जवानी ख्वाब होती है और जवानी में बचपन् एक जमाना हो जाता है।

एक बचपन का जमाना था
जिसमे कुछ हक़ीक़त और कुछ फसाना था,
छोटी सी बातो पर रो देती थी आँखे,,,
और नाही हसने का कोई बहाना था
मन होता था कंचो पर निशाना लगाने का,,
पर बारिश में कागज़ का नाव भी लाना था,,,
वो बचपन का ही जमाना था,,,,
जहां स्कूल ना जाने के लिए रोज बनता एक नया बहाना था।।

- शिवम कुमार सिंह   

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