एक अनोखी प्रेम कथा
कब से इंतज़ार कर रहा हूँ अभी तक आयी क्यों नहीं? प्रतिदिन सुबह करीब 11 बजे आ जाती है जंगल में, हाथ में डायरी और फोन लिए। मैं अपनी शाखाएं दूर-दूर तक फैला देता हूँ ताकि धूप का एक अंश भी उसके श्वेत रंग को झुलसा ना सके।
वो मेरी छाँव के तले बैठ जाती है, मेरे मजबूत तने का सहारा लेकर। ऐसा लगता है मानों जैसे मेरी बाँहों में सिमटी हो वो और मैं ख़ुशी से पागल हुए जाता हूँ , मदमस्त बयार सा बहने लगता हूँ।
आपको लग रहा होगा कि एक पेड़ ये सब क्या बोल रहा है, यह कैसी कहानी है.....
ये मेरी कहानी है और इसका एक - एक अंश सत्य है। मैं मसूरी, उत्तराखंड के जंगल में रहता हूँ। मुझ जैसे ही अनगिनत पेड़ हैं इस जंगल में , लेकिन सब में से उसने मुझे चुना। गर्मियों के मौसम में आयी थी वो छुट्टियां मनाने अपने परिवार के साथ और फिर वापिस गयी ही नहीं। दिल्ली की भीड़ भाड़ से दूर इस जंगल की शांति ने मानो उसके दिल को छू लिया हो और उसे रोक लिया हो वापिस दिल्ली जाने से।
वसुधा नाम है उसका। गोरा रंग स्वर्णिम आभा लिए हुए, तीखे नैन नक्श, छोटी-छोटी पहाड़ी आँखे जो खामोश रहकर भी ढेरों बातें कह जाए। पहली बार वो सैर करने आई थी जंगल में, हाथ में फोन और डायरी लिए। सब पेड़ों में से उसने मुझे चुना और मेरे तने पर अपना नाम लिख दिया वसुधा सौरभ। रोज़ आती , सैर करती और मेरी छाँव तले बैठ जाती तने का सहारा लेकर। वसुधा डायरी में कुछ ना कुछ लिखती रहती और कभी-कभी अपने आप से बातें करती।
एक दिन वसुधा अपने आप से बातें कर रही थी......
सौरभ मैं तुम्हारी आकस्मिक मृत्यु को स्वीकार नहीं कर पा रही हूँ। मेरे हृदय में एक अजीब तरह का दर्द महसूस होता है जो मुझे जीने नहीं दे रहा है। परिवार के, दोस्तों के सहानुभूति से भरे शब्द मुझसे बरदाश्त नहीं होते। मैं नहीं भूलना चाहती तुम्हें, लेकिन हर कोई कहता है कि मुझे तुम्हें भूलना होगा और जिंदगी में आगे बढ़ना होगा।
रिश्तों की भीड़ मुझे तुम्हारे साथ जीने नहीं दे रही थी, इसलिए मैं सब कुछ छोड़ कर मसूरी चली आयी हूँ कुछ महीनों के लिए। याद है ना तुम्हें, हम शादी के बाद हनीमून के लिए मसूरी आये थे। कितने खुश थे हम, रोज जंगल सैर करने जाते थे और तुम जंगल में ज़ोर से चिल्लाकर कहते थे..... आई लव यू वसुधा, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ और यह जंगल, यह पेड़ साक्षी हैं तुम्हारे लिए मेरे प्यार के।
इसलिए मैं मसूरी चली आयी, तुम्हारे साथ बिताए पलों को फिर से जीने के लिए। यहाँ मैं अकेले कुछ पल सुकून से जीना चाहती हूँ तुम्हारी यादों के संग।
देखो इस पेड़ पर मैंने तुम्हारा नाम लिख दिया है....... सौरभ । जानते हो क्यों?
जब भी मैं यहाँ आती हूँ इस पेड़ से सटकर बैठती हूँ और तुम्हें याद करती हूँ। कभी रोती हूँ बेतहाशा तो कभी हँसती हूँ बीते दिनों को याद करके। मैं यहाँ घंटों बैठकर तुमसे बातें करती हूँ और तुमसे जुड़ी हुई हर एक याद को डायरी के पन्नों में सहेजती रहती हूँ।
इस पेड़ के पास मैं आकर सुकून महसूस करती हूँ। कभी-कभी तो मैं इस पेड़ के गले लगकर रोती भी हूँ। मुझे लगता है जैसे तुम मेरे साथ हो। इसलिए इस पेड़ पर मैंने तुम्हारा नाम सौरभ लिख दिया है और उसके साथ मेरा नाम वसुधा।
वसुधा के हर एक एहसास का, उसके आंसू, उसकी हँसी का मैं साक्षी था। जब बारिश का पानी, सूर्य की किरणें , बहती हुई बयार को मैं महसूस कर सकता हूँ तो वसुधा की महक, उसकी भावनाओं को क्यों नहीं? हाँ मैं एक पेड़ हूँ , यूँ ही सदियों से जंगल में खड़ा हूँ। कभी किसी ने मुझसे बात नहीं की, अपने जज़्बात मेरे साथ नहीं बाँटे । लेकिन तुम्हारे आंसुओ ने, तुम्हारे स्पर्श ने मुझे भी द्रवित कर दिया है भीतर तक।
वसुधा तुमने एक पेड़ को जीवित कर दिया है , तुम्हारे आंसुओं से भीगे आलिंगन ने मेरे रोम-रोम में प्राण फूंक दिए हो जैसे। वसुधा मुझे ऐसा लगने लगा है जैसे मैं ही तुम्हारा सौरभ हूँ जो एक पेड़ में कैद हूँ।
कई दिनों से तुम जंगल नहीं आयी हो और मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ। मेरी शाखाएं टूटकर बिखर रही हैं, पत्ते बिना पतझड़ आये नीचे गिर रहे हैं। मैं सूखता जा रहा हूँ। मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ वसुधा।
कुछ दिनों बाद वसुधा आयी। मुझ पर लिखे सौरभ के नाम को छूती रही अपनी उंगलियों से और फिर रोने लगी।
मैं दिल्ली वापिस जा रही हूँ सौरभ। कुछ दिन पहले पता चला है कि सरकार सड़क चौड़ी करने के लिए जंगल के पेड़ काटने जा रही है। जो भी पेड़ सड़क के किनारे हैं वो सब काट दिए जाएंगे। लगता है हमारा साथ रहना इस जन्म में मुमकिन नहीं। इसलिए जा रही हूँ फिर से रिश्तों की भीड़ में वापिस।
अलविदा सौरभ...... उसने मेरे तने पर लिखे सौरभ नाम को चूमा और चली गयी।
मैं उसे रोक नहीं पाया, कैसे रोकता? सरकार हम पेड़ों को काटने वाली थी।
क्यों मनुष्य अपनी सुख-सुविधाओं के लिए हमें जब चाहे काट देते हैं, क्यों नहीं सुकून से पनपने देते हैं हमें हमारे जंगलों में?
क्यों हमारे सांस लेते अस्तित्व को नकार देते हैं, क्यों हमें निर्जीव समझकर काट देते हैं?
जब कुल्हाड़ी चलती है हमारे बदन पर हमें भी तकलीफ होती है। लेकिन हमारे दर्द की चीखें तुम्हें सुनाई नहीं देती है। ना चाहते हुए भी निकलती है तुम इंसानों के लिए पेड़ो के मुख से बददुआ जो अक्सर प्रलय के रूप में विध्वंस मचाती है।
मत काटो हमे जीने दो, हर जंगल को शहर में तब्दील मत होने दो।🙏🙏
❤ सोनिया जाधव
आर्या मिश्रा
05-Dec-2021 12:47 AM
Very nice
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Seema Priyadarshini sahay
05-Dec-2021 12:11 AM
बहुत खूबसूरती से आपने लिखा।
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Shrishti pandey
04-Dec-2021 10:18 PM
Very nice
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