प्रेम का अनादर
प्रेम का अनादर
राजा भर्तृहरि उज्जयिनी के सम्राट थे। उनका समय अनुमानतः 550 ईसापूर्व माना जाता है। उनके पिता का नाम चंद्रसेन था, जिनके दो पुत्र थे भर्तृहरि और विक्रमादित्य।
भर्तृहरि की एक रानी थी पिंगला, पिंगला अत्यंत सुंदर थी। भर्तृहरि और पिंगला एक दूसरे से अत्यंत प्रेम करते थे। कहा जाता है जब भर्तृहरि और पिंगला सोते थे तो दोनों एक दूसरे की अंगुली पकड़ कर सोते थे। एक दिन भर्तृहरि शिकार पर जाने लगे तो रानी पिंगला कहती है―
"महराज! आप मुझे अकेले छोड़ कर कहाँ जा रहें हैं।"
"रानी! में अभी थोड़े देर में आ जाऊँगा तुम परेशान न हो।"
"नहीं, महाराज आप के बिना मेरा बिल्कुल मन नहीं लगता।"
"मुझे जाने दो रानी मैं थोड़े देर में आ जाऊँगा।"
राजा शिकार पर चले जाते हैं तो वह देखते हैं कि एक दुर्बल पुरुष और स्त्री जंगल की ओर आ रहे हैं, स्त्री की अपेक्षा वह पुरुष अत्यधिक दुर्बल प्रतीत हो रहा था।
भर्तृहरि एक वृक्ष के ओट में छुप गए। वह जानना चाहते थे कि वो जोड़ा यहाँ क्यों आया है? थोड़े ही समय में वह दुर्बल पुरुष एक वृक्ष पर चढ़ गया और कुल्हाड़ी से टहनी काट-काट कर नीचे गिराने लगा, उसकी पत्नी उन लकड़ियों को एकत्र करने लगी। तभी अचानक तूफान आया जिसके कारण उस पुरुष का संतुलन बिगड़ गया और वह नीचे गिर गया―
"नाथ!आपको क्या हुआ? आंखे खोले नाथ, अब मैं आप के बिना कहाँ जाउँगी? मैं आप के बिना नहीं रह सकती। आप शीघ्र ही अपने आंखे खोले नाथ नहीं तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगी।"
भर्तृहरि ने देखा कि उस पुरुष की मौत हो चुकी है और उसकी पत्नी जोर-जोर से विलाप कर रही है। थोड़े देर में उन्होंने देखा कि वह स्त्री उन्हीं लकड़ियों को एकत्र कर एक चिता बनाती है और अपने पति को गोद में लेकर सती हो जाती है। इस दृश्य को देख कर भर्तृहरि अत्यधिक दुःखी हो जाते हैं और सोचने लगते हैं कि इस स्त्री का अपने पति के प्रति कितना निःस्वार्थ प्रेम था।
इधर, रानी पिंगला ने एक चंदन का वृक्ष अपने वाटिका में रोपित किया, यह सोच कर कि यदि किसी युद्ध में महाराज की मृत्यु हो जाती है तो यह वृक्ष ही मुझे सूचना देगा। वह चंदन का वृक्ष लगाती हैं और कहती है―
"हे चंदन तरु! जब भी मेरे पति की मृत्यु हो तो तुम सूख कर उनके जीवित न होने की सूचना दे देना।"
उसी समय आकाशवाणी भी होती है―
"हे पिंगला! ऐसा ही होगा।"
भर्तृहरि अपने महल में लौट आते हैं। और सोचने लगते हैं क्यों न मैं अपनी पत्नी पिंगला की परीक्षा लूँ, देखूँ क्या वह भी उस स्त्री की तरह मुझसे उतना ही प्रेम करती है।
दूसरे दिन राजा पुनः शिकार पर जाते हैं। और एक हिरण का शिकार करते हैं। इसके बाद वह अपना उत्तरीय सेवक को देकर कहते है ―
"जाओ, इसको हिरण के रक्त से भिंगो दो।"
सेवक को कुछ समझ में नही आता परंतु उसे राजा की आज्ञा का पालन करना था। सेवक वैसा ही करता है और राजा के सम्मुख उपस्थित होता है―
"राजन! इसका क्या प्रयोजन है?"
"तुम यह वस्त्र लेकर जाओ और रानी से कहो कि महाराज के ऊपर एक सिंह ने आक्रमण कर दिया और महाराज की मृत्यु हो गयी।"
"ये क्या कह रहे है महाराज...मैं ऐसा रानी से कैसे कह सकता हूँ?"
"तुमको जैसा कहा है वैसा करो, यह मेरी आज्ञा है।"
सेवक राजा का वस्त्र लेकर चला जाता है और रानी से कहता है―
"रानी...रानी...।"
"बोलो क्या हुआ? तुम्हारे हाँथों में यह रक्त से लिप्त वस्त्र किसका है?"
"रानी!, महाराज के ऊपर सिंह ने आक्रमण कर दिया था...।"
"हाँ, तो क्या हुआ...बोलते क्यों नहीं?"
"रानी! महाराज इस संसार को छोड़ कर चले गए।"
"तुम असत्य कह रहे हो। महाराज को भला कौन मार सकता है...?"
"यह सत्य है रानी, मेरा विश्वास कीजिए।"
तभी रानी को स्मरण होता है कि यदि यह सेवक सत्य कह रहा है तो वह चंदन का तरु अवश्य सूख गया होगा। वह दौड़ कर चंदन तरु देखने वाटिका जाती है। वह देख कर अत्यंत प्रसन्न होती है कि वह तरु तो हरा-भरा है।
वह तुरंत सेवक के पास आती हैं और उससे कहती है―
"तुम असत्य भाषण कर रहे हो, मेरे महाराज को कुछ नहीं हो सकता।"
परंतु वह सेवक रानी को विश्वास दिलाने में सफल हो जाता है। रानी को यह पीड़ा सहन नहीं होती वह अपने प्राण त्याग देती है।
तभी महाराज लौट कर आते हैं और देखते हैं कि उनकी पिंगला भूमि पर मृत पड़ी है, निकट ही सेवक विलाप कर रहा है।
"यह क्या हुआ?"
"महाराज! रानी आप का मृत्यु समाचार सहन न कर सकी और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।"
अब महाराज के ऊपर जैसे दु:खों का पहाड़ ही टूट पड़ा, उन्होंने तो कल्पना भी नहीं की थी कि रानी इस तरह अपना देह त्याग देंगी। वह विलाप करने लगते हैं। तभी सूचना मिलती है कि बाबा गोरक्षनाथ पधारे हैं। गोरक्षनाथ को राजा के पास लाया जाता है। वो देखते हैं कि राजा भर्तृहरि तो अपनी पत्नी के वियोग में विलाप कर रहे हैं, तो वह वहीं पर अपना कमण्डल भूमि पर फेंक देते हैं, कमंडल के कई टुकड़े हो जाते हैं, बाबा गोरक्षनाथ भी वहीं बैठ कर विलाप करने लगते हैं। बाबा को रोता हुआ देख कर राजा भर्तृहरि पूछते है―
"बाबा! आप क्यों रो रहे हैं?"
"तुम क्यों रो रहे हो?"
"मैं तो इसलिए रो रहा हूँ कि मेरी रानी अब नहीं रही।"
"मैं भी इसलिए रो रहा हूँ क्योंकि मेरा कमंडल अब नहीं रहा, वह टूट गया।"
"लेकिन बाबा आपका कमंडल तो दूसरा मिल जाएगा परंतु मेरी पत्नी अब नहीं आएगी।"
"मेरा कमंडल भी अब ऐसा नहीं मिलेगा।"
"बाबा! यदि मैं आप का कमंडल बनवा दूँ, तो क्या आप मेरी रानी को पुनर्जीवित कर सकते हैं...?"
"अवश्य, यदि तुम मेरा कमंडल यूँ ही हूबहू बना सको तो.."
"यह तो बहुत आसान है, मैं अभी अपने सेवकों से कह कर हूबहू ऐसा ही कमंडल बना देता हूँ।"
बहुत से कमंडल बनाये गए परंतु कोई भी कमंडल बाबा के कमंडल के समान नहीं था, कोई थोड़ा छोटा था कोई बड़ा, कोई नीचा कोई ऊंचा। तब राजा ने बाबा से कहा―
"बाबा! क्या बिना कमंडल के मेरी पत्नी जीवित नहीं हो सकती?"
"क्यों नहीं, तुमहीं तो कह रहे थे कि तुम मेरा कमंडल लौटा सकते हो...खैर कोई बात नहीं मैं तुम्हारी पत्नी को पुनः जीवित कर देता हूँ।"
बाबा भर्तृहरि से कहते हैं तुम अपनी आंखें बंद करो, जैसे ही बाबा आँखे खोलने को कहते हैं तो देखते हैं कि यहां तो अनेक पिंगला हैं।
"बाबा इसमें मेरी वाली पिङ्गला कौन है? सभी समान है।"
"क्यों, क्या तुम अपनी रानी को पहचाने में असमर्थ हो?"
"हाँ बाबा, मैं तो असमर्थ हूँ।"
तब बाबाने कहा ―
"कोई बात नहीं तुम पुनः अपनी आँखें बंद करो।"
राजा भर्तृहरि अपनी ऑंखे बन्द कर लेते हैं और जब अपनी आँखें खोलते हैं तो देखते है कि पिंगला पुनः जीवित हो गई है। भर्तृहरि अत्यधिक प्रसन्न होते हैं और बाबा गोरखनाथ को धन्यवाद देते हैं।
वास्तव में, बाबा तो भर्तृहरि को अपने साथ ले जाने के लिए आये थे, परन्तु वह समय उपयुक्त नहीं था अतः उनको वापस जाना पड़ा।
इधर, राजा भर्तृहरी अपनी रानी को खोने के बाद पुनः पाने के कारण वह उससे और भी अत्यधिक प्रेम करने लगते हैं। अब तो उनका मन राज-काज में भी नहीं लगता, सदैव रनिवास में ही विराजमान रहते हैं।
इस बात से बाबा गोरखनाथ अत्यंत दुःखी होते हैं और वह राजा से पुनः मिलने उज्जयिनी आते हैं। इस बार वो रानी पिंगला से मिलते हैं―
"रानी मुझे राजा से मिलना है।"
" आपको क्या चाहिए वह मुझसे कहिये, मैं उसे पूरा करूँगी।"
"तुम दे सकोगी मुझे?"
"हाँ, क्यों नहीं आप कह कर तो देखे, क्या चाहिए?"
"रानी! पहले वचन दो।"
"ठीक है , मैं वचन देती हूँ।"
" तो सुनो, मुझे तुम्हारा पति चाहिए।"
"पति...? यह आप क्या कह रहे हैं बाबा...? मैं अपना पति आपको नहीं दे सकती।"
"लेकिन तुमने मुझे वचन दिया है।"
"चाहे कुछ भी हो, मैं आपको अपना पति नहीं दे सकती।"
बाबा गोरक्षनाथ बहुत क्रोधित होते हैं―
"रानी! तुमने अपना वचन तोड़ा है, इसका दंड तुमको अवश्य मिलेगा, मैं अपनी लकुटी यहीं तुम्हारे महल के द्वार पर टाँग कर जा रहा हूँ। एक दिन तुम्हारा पति इसी लकुटी को लेकर मेरे पास अवश्य आएगा।"
बाबा गोरक्षनाथ नाथ वहाँ से चले जाते हैं। एकदिन राजा अपने सभासदों के साथ बैठे थे, उसी समय एक नवयुवक उनके सभा में उपस्थित होता है और महाराज से कहता है―
"राजन! मेरे पास कोई कार्य नहीं है, क्या मुझे आपके महल में कोई सेवा कार्य मिल सकता है।"
"ठीक है नव युवक, तुम महारानी पिंगला के महल के कोतवाली बन सकते हो, अब उसकी सुरक्षा का दायित्व तुम्हारे ऊपर है।"
नवयुवक रानी पिंगला के महल की ओर चल पड़ता है। वह एक अश्व पर बैठ कर दिन-रात रानी की सुरक्षा करता है। एक दिन रानी की दृष्टि उस कोतवाल पर पड़ जाती है, देखते ही वह उस पर मोहित हो जाती है। वह सोचने लगती है―
"काश! यह युवक मेरा पति होता...ओह! कितना सुंदर है यह...,इसकी भुजाएँ कितनी लंबी हैं...इसके केश ऐसे लहरा रहे हैं जैसे समुन्दर की लहरें... इसके वक्ष इतने विशाल हैं जैसे समुन्दर के किनारे ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हो। ओह! यह सुंदर युवक कौन है...? कहाँ से आया है...?"
रानी अपना पत्नी धर्म भूल कर उस युवक पर मोहित हो जाती हैं और प्रत्येक रात्रि राजा के सो जाने के पश्चात उससे मिलने के लिए जाने लगती हैं।
राजा भर्तृहरि के महल में एक सुंदर नर्तकी थी, जो राजा और सभापतियों का मनोरंजन करती थी। यह नर्तकी भी उस कोतवाल को बहुत चाहती थी और कोतवाल भी नर्तकी से अत्यंत प्रेम करता था, वह सोचता था कि रानी तो परायी है परंतु यह नर्तकी तो अपनी है। अतः वह रानी से भय के कारण उनसे मिलने जाता था।
एक दिन बाबा गोरक्षनाथ पुनः राजा के महल आते हैं और राजा भर्तृहरि को एक फल देते हैं―
"राजन! यह फल अत्यंत चमत्कारी है, जो भी इसका सेवन करेगा वह चिरयौवन रहेगा।"
फल देकर बाबा वहाँ से चले जाते हैं। राजा अपनी पत्नी पिंगला से अत्यंत प्रेम करता था, उसने सोचा यदि मैं यह फल रानी को दे दूँ तो वह सदैव चिरयौवन रहेगी और मुझे सदैव प्रसन्न रखेगी। अतः वह फल रानी को दे देते हैं। रानी तो अब कोतवाल से प्रेम करने लगी थी, तो वह सोचती है, यदि यह फल मैं कोतवाल को दे दूँ तो वह मुझे सदैव संतुष्ट रखेगा अतः यह सोच कर वह फल कोतवाल को दे देती है। कोतवाल जो नर्तकी से प्रेम करता है वह सोचता है यदि मैं यह फल नर्तकी को दे दूँ, तो वह सदैव युवती बनी रहेगी, यह सोच कर वह फल नर्तकी को दे देता है। नर्तकी सोचती है यदि यह फल मैं स्वयं ग्रहण करती हूँ तो मैं सदैव नर्तकी ही बनी रहूँ गी और यह घृणित कार्य जीवन पर्यंत करना होगा, यदि मैं यह फल राजा को दे दूँ, तो इस राज्य को सदैव के लिए एक युवा और शक्तिशाली राजा प्राप्त होगा। यह सोच कर वह फल राजा को दे देती है। जब राजा को वही फल मिलता है तो वह आश्चर्य में पड़ जाता है। वह नर्तकी से पूछते हैं―
"नर्तकी! तुम्हें यह फल कहाँ से प्राप्त हुआ?"
"राजन! मुझे तो यह फल रानी के कोतवाल ने दिया है।"
कोतवाल को बुलाया जाता है। कोतवाल उपस्थित होता है―
"तुम्हें यह फल कहाँ से मिला?"
कोतवाल बहुत भयभीत हो जाता है। वह सोचने लगता है, अब तो सारा भेद प्रकट हो जाएगा।
"राजन! मुझे यह फल रानी पिङ्गला ने दिया था, क्योंकि मैं नर्तकी से अत्यंत प्रेम करता हूँ इसलिए मैंने यह फल नर्तकी को दे दिया था।"
राजा अब मन ही मन दुःखी हो जाता है, वह सोचने लगते हैं कि रानी ने यह फल कोतवाल को क्यों दिया होगा...? रानी तो मुझसे अत्यंत प्रेम करती है, वह मेरे साथ विश्वासघात नहीं कर सकती।
राजा दुःखी मन से पिङ्गला के महल में प्रवेश करते हैं―
"रानी! जो फल मैंने तुमको दिया था क्या तुमने उसका सेवन कर लिया?"
"हाँ महाराज अत्यधिक ही स्वादिष्ट फल था।"
रानी झूठ बोल देती है। बाबा के प्रभाव के कारण अनजाने में रानी से प्रेम का अनादर हो जाता है, जिससे वह पूर्णतः अनभिज्ञ थी। उसे किंचित भी ज्ञान नहीं कि राजा अब सदैव के लिए उसे छोड़ कर चले जायेंगे।
रानी के असत्य भाषण से राजा भर्तृहरि अत्यंत दुःखी हो जाते हैं और उनको बहुत बड़ा आघात लगता है, उन्हें रानी पिङ्गला से यह आशा नहीं थी, उनका हृदय टूट जाता है। उनको विश्वास नहीं होता कि यह वही रानी है, जो मेरी मृत्यु के झूठे समाचार से मरणासन्न हो गयी थी।
राजा को अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था, उनका मोहभंग हो चुका था, उनके विश्वास को अत्यधिक चोट पहुँची थी। अब वह महल में एक क्षण भी नहीं रुकना चाहते थे। उन्होंने सद्यः ही सारे राजसी वैभव का परित्याग कर दिया और एक योगी के वेश में महल से निकल पड़े।
रानी के महल से निकलते समय उनकी दृष्टि एक गेरुँवे रंग की लकुटी पर पड़ी जो बाबा गोरक्षनाथ ने वहाँ टाँगी थी। राजा ने उस लकुटी को ग्रहण कर लिया और सीधे बाबा गोरक्षनाथ के पास पहुँचे।
"बाबा मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ।"
"यदि तुम मेरे शिष्य बनना चाहते हो, तो तुमको 12 वर्ष तक कठोर तपस्या करनी होगी।"
भर्तृहरि एक गुफा में 12 वर्ष तक तपस्या करते हैं। वह गुफा आज भी उज्जयिनी में है। 12 वर्ष पश्चात् वह पुनः बाबा के पास आते हैं―
"बाबा! अब तो मैंने बारह वर्ष की तपस्या पूर्ण कर ली। क्या अब मैं आप का शिष्य बन सकता हूँ?"
"ठीक है, यदि तुमने मेरा शिष्य बनने का निर्णय ले ही लिया है तो... जाओ मेरे लिए भिक्षा लेकर आओ और इसका प्रारंभ तुम सर्वप्रथम अपने महल से ही करोगे।"
"ठीक है, गुरुदेव! जैसी आपकी आज्ञा।"
भर्तृहरि रानी पिङ्गला के महल पहुँचते हैं, और कहते हैं―
"भिक्षा दे माता...भिक्षा दे।"
राजा की ध्वनि सुनकर रानी पिङ्गला महल से बाहर आती हैं और भर्तृहरी को देखते ही फूट-फूट कर रोने लगती हैं और अपने कृत्यों की बारंबार क्षमा माँगती है परन्तु भर्तृहरि पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह पुनः कहते हैं―
"भिक्षा दे माता...भिक्षा दे।"
पिङ्गला रोते-रोते भर्तृहरि को भिक्षा देती हैं। भिक्षा लेकर भर्तृहरि पुनः अपने गुरु गोरक्षनाथ के पास आते हैं और कहते हैं―
"भिक्षा ले आया गुरुदेव!"
यह देखते ही बाबा अत्यंत प्रसन्न होते हैं और भर्तृहरि को अपने गले से लगा लेते हैं―
" भर्तृहरी! मैं तो कब से तेरी प्रतीक्षा कर रहा था। तू ही था, जो मुझसे मुख मोड़ा हुआ था।"
जिस गुफा में भर्तृहरी ने 12 वर्ष तक तपस्या की थी। यह गुफा उज्जयिनी में आज भी है।
समाप्त।
🤫
07-Dec-2021 01:23 AM
बहुत सुंदर कहानी, प्राचीन कहावत को जोड़कर कहानी बेहतरीन treeke से आगे बढ़ाई है।
Reply
Seema Priyadarshini sahay
06-Dec-2021 06:28 PM
बहुत खूबसूरत कहानी
Reply
Dr. Madhavi Srivastava
26-May-2022 01:11 PM
आभार आपका।
Reply
Aliya khan
06-Dec-2021 10:25 AM
Behtarin kahani
Reply
Dr. Madhavi Srivastava
06-Dec-2021 11:08 AM
आभार आपका।
Reply