Sonia Jadhav

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विसर्जन

विसर्जन करती हूँ अपने अस्तित्व के उस हिस्से का
जिसने सिर्फ सहना सीखा,
आवाज़ उठाना भूल गया।
चार दीवारी को समझ ली अपनी दुनिया,
बाहर की दुनिया से अपना नाता तोड़ दिया।
खुलकर हँसती थी जो, उसने धीरे से मुस्कुराना सीख लिया,
बात-बात में रोती थी जो, उसने आंसुओं को दबाना सीख लिया।
गूंगी-बहरी नहीं थी, ना दृष्टिहीन थी
चाहती तो कदम बढ़ा सकती थी,
हाथों में नयी लकीरें बना सकती थी,
सब कुछ होते हुए भी ना जाने क्यों,
उसने अपाहिज़ बनना मँजूर किया
शायद वो आवाज़ उठाने के लिए
सही वक़्त तलाशती रही,
शरीर कब, ना कहेगा खुद से, अब और नहीं
ऐसे घाव तलाशती रही।
कैद में जब साँसे घुटने लगी,
घाव नासूर बनने लगे,
चिटकनी खोल दरवाज़े की अपनी,
वो धूप का कोना तलाशने लगी।
बाहर उठाया ही था कदम,
वो बेसुध हो गिर पड़ी।
छोड़कर अपनी साँसे, वो आसमाँ की ओर उड़ चली,
जाते-जाते कर गई विसर्जित अपने अस्तित्व के उस हिस्से को,
जिसने सिर्फ सहना सीखा,
आवाज़ उठाना भूल गया

❤सोनिया जाधव

#लेखन

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7 Comments

Ravi Goyal

09-Dec-2021 11:48 AM

Waah bahut sunder 👌👌

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Shrishti pandey

09-Dec-2021 08:25 AM

Bahut sundar

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Abhilasha sahay

08-Dec-2021 07:22 PM

Very nice 👌

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