"ग़ज़ल बोल रही है"
"ग़ज़ल बोल रही है"
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हुकूमत की हक़ीक़त को जो खोल रही है,
ध्यान से सुनना ये ग़ज़ल बोल रही है।
जिसको भी चटकना हो,दमकना हो दमक ले
इन्सान की हिम्मत को ग़ज़ल तौल रही है।
इन्सान की करतूत है,क़ुदरत का क्या कुसूर?
उठती लपट चिता की यही बोल रही है।
रह-रह के खनकतीं हैं टूटी चूड़ियां जिसकी,
उसके माॅग की ख़ामोश फ़ज़ा बोल रही है।
छलकाती थी जो आंख निगाहों से गुलाबी,
उस आंख में शबनम की नमी डोल रही है।
जिसकी रग में चिटकती हुई कलियों की महक थी,
है वो आज भी उदास, ज़हर घोल रही है।
तख़्तो-ताज लिए फिरते हैं सुल्तान-ए-हुकूमत,
उनके लब पे गुलाबों की तरी डोल रही है।
लगी जो आग है अब चार तरफ़ रोम की तरह,
मीठी धुन में कोई बांसुरी भी बोल रही है।
हैं छोटे-बड़े मुर्दे भी लहरों के संग-संग,
गंगा भी अपनी मौज में अब डोल रही है।
'नमस्कार-नमस्कार पतित-पावनी गंगे,'
बह के आई है जो लाश हंस के बोल रही है।
दिखती नहीं वो प्रीति जो अनमोल रही है,
समय की धार में ग़ज़ल भी अब तो डोल रही है।
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