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रजाई

रजाई 


भाग 1 

रजाई की अहमियत दिसंबर - जनवरी में उसी तरह पता चलती है जिस तरह "लुगाई" की अहमियत मायके जाने पर महसूस होती है । पानी का मोल रेगिस्तान में और रोटी की कीमत भूख में ज्ञात होती है । परिवार से दूर होने पर परिवार का पता चलता है दुखों के आगमन पर खुशियों का मूल्य समझ में आता है ।

राजस्थान के सीकर जिले का फतेहपुर कस्बा अपने मौसम के मिजाज के कारण कुख्यात है । सर्दियों में यहां का तापमान माइनस में चला जाता है । गर्मियों में आग उगलता है । अत्यधिक सर्दी और भयंकर गर्मी का अद्भुत साम्राज्य है यहां पर । अत्यधिक सर्दी के कारण इसे राजस्थान का सियाचिन भी कह देते हैं लोग । जब दूसरी जगह पर "लोई" से काम चल जाता है तो यहां पर ओढ़ने के लिए रजाई चाहिए और जब दूसरी जगह पर रजाई चाहिए होती है तो यहां पर डबल रजाई होनी चाहिए । इतनी अधिक सर्दी पड़ती है यहां पर । हो सकता है कि डबल रजाई की आवश्यकता के कारण "डबल लुगाई" की अवधारणा यहीं पर विकसित हुई हो । 😄😄

हाड़ कंपाती ठंड में "पानी मोड़ना" किसी कुंभीपाक नर्क की सजा से कम नहीं होता है । किसानों की परीक्षा भी शायद सरकारें लेती हैं कि ये कितनी ठंड झेल सकते हैं । किसानों को तीन फेस की बिजली रात में ही क्यों दी जाती है ? इसका जवाब आज तक मुझे मिल नहीं पाया है । गोकल तो यही समझता है कि सरकार किसानों की ठंड सहने की शक्ति का इम्तिहान लेती है । एक तो रात का मौसम । घुप अंधेरा । उस पर हाड़ गलाती ठंड । और कोढ़ में खाज की तरह फर फर चलती शीत लहर । ये तो किसानों और फुटपाथियों का ही जिगर है जो कुदरत के इस शीत प्रकोप को हंसते हंसते सहन कर जाते हैं । किसान को तो ऐसे जाड़े में पानी मोड़ने के लिए खेत में पानी में भी खड़े होना पड़ता है । जब तक वह पानी में खड़ा रहता है तब तक तो वह अपने आपको गर्म महसूस करता है मगर जैसे ही वह पानी से बाहर निकलता है उसके पांव एकदम सुन्न हो जाते हैं । ऐसा महसूस होता है कि उसके पांव "नौ नौ मण" के हो गये हैं । उठाने से भी नहीं उठ रहे हैं । खेत से झोंपडी तक का सफर दूभर हो जाता है । जैसे तैसे करके वह दुष्कर कृत्य "खेत से झोंपडी तक का सफर" किया जाता है । फिर अलाव जलाकर पैरों को उसमें सेका जाता है ।  तब जाकर कहीं जान में जान आती है । तब किसान को अपने पैर महसूस होने लगते हैं । 

फतेहपुर की ऐसी भयंकर सर्दी की रात रोज ही गुजरती हैं गोकल की । पिछले पचपन साल से तो वह ऐसे ही गुजारता चला आ रहा है । दस बीघा पक्का खेत था उसका । बाप दादाओं के जमाने से चला आ रहा है यह खेत । उसने इसमें ना तो कोई वृद्धि की है और ना ही कोई कमी ही की । कहते हैं कि अगर अपने बाप दादाओं की छोड़ी जायदाद में कुछ वृद्धि ना कर सको तो कम से कम उसमें कमी तो मत करो । गोकल अपने बाप की छोड़ी जमीन में कुछ जोड़ तो नहीं पाया मगर उसने उसे बेचा भी नहीं । अनेक अवसर ऐसे आये जब उसकी हिम्मत डोल गई थी । एक बार के लगातार दो साल अकाल और तीसरी साल बाढ़ ने उसकी कमर तोड़ ही दी थी । घर में जो कुछ जमा पूंजी थी सब "स्वाहा" हो गई थी । फाकों की नौबत आ गई थी । तब गोकल का धीरज भी डोल गया था और उसने उस जमीन को बेचने का फैसला ले लिया था । वो तो उसकी घरवाली सरूपी बीच में आ गई और ताल ठोक कर खड़ी हो गई कि वह अपने जीते जी खेत को बेचने नहीं देगी । तब जाकर गोकल ने अपना इरादा बदला । गोकल आज भी सरूपी का अहसानमंद है कि उसने अपनी हठधर्मिता से यह इकलौता खेत बेचने नहीं दिया । जब भी वह अपने खेत पर उन पुराने दिनों को याद करता है तब उसका हृदय सरूपी के लिए कृतज्ञता से भर उठता है । 

कभी कभी वह सोचता है कि सरूपी को उसने दिया ही क्या है सिवाय दुख और मुसीबतों के । अच्छे खाते पीते घर से आई थी सरूपी । पचास बीघा जमीन थी सरूपी के बाप के पास । आठ दस "खोज" थे घर में । दूध दही की नदियां बहती थी । दो दो "हाड़ी" काम करते थे घर में । सब सुख साधन थे मगर गोकल तो एक साधारण सा किसान था । केवल दस बीघा जमीन और एक गाय का मालिक । बड़ी मुश्किल से जीवन यापन होता था उसका । पता नहीं सरूपी के बाप ने गोकल में ऐसा क्या देखा जो सरूपी का रिश्ता भिजवा दिया । 

सरूपी का रिश्ता गोकल की शान बढ़ा गया । गांव में उसकी इज्ज़त बढ़ गई । सरूपी ने भी गोकल के घर को स्वर्ग बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । पीहर में वह एक भी दिन खेतों पर नहीं गई । खेतों में और गाय भैंसों का काम करने के लिए दो दो आदमी "हाड़ी" लगे हुये थे । लेकिन गोकल के यहां तो सब कुछ खुद ही करना पड़ता था । सरूपी ने खुद को इस माहौल में तुरंत ढ़ाल लिया और सारा काम खुद करने लग गई । गोकल तो सरूपी को पाकर जैसे निहाल हो गया था । 

क्रमशः 

शेष अगले अंक में 

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11 Comments

Mithi . S

24-Sep-2022 06:11 AM

Behtarin rachana

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Sushi saxena

23-Sep-2022 08:48 AM

Bahut khub likha hai

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Chirag chirag

22-Sep-2022 11:47 PM

Beautiful

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