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रजाई

रजाई 


भाग 6 

गतांक से आगे 

श्यामू की शादी के बाद श्यामू और रचना दिल्ली रहने लगे । पुलिस की नौकरी कोई खेल नहीं है । चौबीसों घंटे की नौकरी होती है । जिस तरह अपराधों का ग्राफ बढता जा रहा है उससे तो लगता है कि अब घोर कलयुग आ गया है । बाप बेटा को मार रहा है बेटा मां और बाप दोनों को । पति पत्नी का कत्ल कर रहा है तो पत्नी पति का गला रेतकर अपने प्रेमी के संग भाग रही है । संपत्ति को लेकर भाई बहनों में झगड़े हो रहे हैं और नौबत मारपीट की आ गयी है । दुष्कर्म और यौन अपराध तो जलकुंभी की तरह बढ़ते ही जा रहे हैं । चोरी, डकैती, लूटपाट, छीना झपटी की घटनाओं की तो पूछो ही मत । अब तो धोखाधड़ी और ठगी के नित नये मामले बन रहे हैं । जाति, धर्म के झंझट अलग । उस पर दहेज से संबंधित मामले और अनुसूचित जाति जनजाति उत्पीडन के मामले अलग । श्यामू को ऐसा लगता था कि दिन के चौबीस घंटे कम पड़ रहे हैं उसके लिये । वह मन लगाकर काम करता था और आम इंसान की तकलीफों को समझता भी था । 

रचना पढ़ी लिखी समझदार लड़की थी । उसने श्यामू का घर संवार कर स्वर्ग बना दिया था । उसने प्रयास भी किये कि सरला भाभी से रिश्ते अच्छे हो जायें मगर ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है । थोड़े दिनों में उसे समझ में आ गया कि इन तिलों से तेल निकलने वाला नहीं है । इसलिए उसने भी अपनी नाव को धारा के हवाले कर दिया । जाने कहाँ जाकर रुकेगी यह नाव । किसी को कुछ पता नहीं । किसी को कोई खबर नहीं । जो तकदीर में लिखा है वो होकर रहेगा । 

गोकल को उसकी मेहनत और नेकनीयती का ईनाम मिलने लगा । गांव में उसकी इज्ज़त बढ़ गई थी । उसके चेहरे पर भी रौनक बढ गई थी । अब लोग उसे "गोकल" नहीं कहते थे बल्कि "गोकुल जी" कहकर बुलाने लगे । कहीं कोई झगड़ा फसाद होता तो गोकल को पंचायती करने के लिए बुला लिया जाता । तब गोकल अपना साफा बांधकर जाता था पंचायती करने । उसकी गिनती अब पंच प्रधानों में होने लगी थी । उसकी बात को सब लोग अब बहुत ध्यान से सुनते थे । इस मान सम्मान गोकल की आत्मा प्रसन्न हो जाती थी । कहते हैं कि संतान से नर्क भी है और स्वर्ग भी है । गोकल ने दोनों का अनुभव एक ही जीवन में कर लिया था ।

उधर सरूपी की तो जैसे जिंदगी ही बदल गई । भगवान ने उसके लाल को थानेदार बना दिया था उसके लिये इतना ही बहुत था । भगवान में उसकी आस्था और बढ़ गई थी । अब पूजा पाठ में समय ज्यादा बीतने लगा था । व्रत उपवास और बढ़ गये उसके । औरतों की पंचायती में उसका सिक्का चलने लगा । एक ही झटके में वह सरूपी से '"सरूपी मां" बन गई । श्यामू उसके लिए साड़ी लेकर आया था । वह उस साड़ी को जब भी पहनती दस लोगों को बताने से नहीं चूकती थी कि यह साड़ी उसके बेटे श्यामू ने दी है । यह बताते समय उसके मुखड़े की आभा देखते ही बनती थी । पति द्वारा लायी हुई साड़ी से जो सुख मिलता है उससे सौ गुना सुख बेटे द्वारा लायी गयी साड़ी से मिलता है । लोग लुगाई उसकी साड़ी और श्यामू के स्वभाव दोनों की ही बड़ाई करते थे । सरुपी मुक्त कंठ से श्यामू और रचना की प्रशंसा करती थी । इस सबसे सरला और भी ज्यादा चिढ़ने लगी । 

रामू और श्यामू में कोई ज्यादा मन मुटाव नहीं था । मगर सरला के रूखे व्यवहार के कारण श्यामू ने थोड़ी दूरी बना ली थी । पता नहीं कब किस बात को लेकर वह लड़ने बैठ जाये । उसका कोई ठिकाना नहीं था । और अगर एक बार उसकी जुबान चलने लग जाये तो फिर उसे रोकना असंभव सा लगता था । श्यामू ने इसी में भलाई समझी कि अपने काम से काम रखो बाकी सब कुछ माफ रखो । उसने रचना को भी समझा दिया था । बीच बीच में जब भी कभी वे लोग गांव आते थे सबसे प्रेम पूर्वक मिलते भेंटते थे । इससे श्यामू और रचना पूरे गांव के लाडले बन गये थे ।

छोटी छोटी बातों को लेकर लड़ाई हो जाती थी घर में । एक दिन रचना पानी भर रही थी कि पानी के दो चार छींटें सरला पर पड़ गये । बस , वह तो इसी बात पर बिलबिला गई और उसने आसमान सिर पर उठा लिया । रचना ने कहा भी कि पानी के छींटे त्रुटिवश पड़े हैं , उसने जानबूझकर नहीं डाले हैं मगर सरला इसे कहाँ मानने वाली थी । वो कहने लगी "छींटे जानबूझकर मारे गये" । अब कौन निर्णय करे कि त्रुटिवश छींटे पड़े या जानबूझकर मारे । बस, इसी प्रकार की बातों पर लड़ाई हो जाया करती थी । श्यामू और रचना अक्सर खामोश ही रहते थे मगर सरूपी मोर्चा संभाल लेती थी । यद्यपि श्यामू अपनी मां को समझा बुझा कर शांत कर लेता था मगर सरला का लाउडस्पीकर आसानी से बंद नहीं होता था ।

श्यामू की शादी को एक साल होने को आया । सरूपी की इच्छा थी कि शादी की पहली वर्षगांठ खूब धूमधाम से मनायी जाये गांव में । श्यामू और रचना दोनों राजी हो गए । श्यामू ने अपनी ससुराल वालों को और अपनी दोनों बहनों शारदा तथा कमला को भी बुलवा लिया । सब लोग आ गये । 
जनवरी का महीना था । दिन मेहमानों की तरह लग रहे थे । सूरज कब निकला और कब अस्त हो गया, पता ही नहीं लगता था । जिस तरह मेहमान कब आये और कब चले गये, भान नहीं होता है उसी तरह जनवरी के दिन भी होते हैं । छोटे छोटे से ।  भयंकर सर्दी का मौसम था । न्यूनतम तापमान 3-4 डिग्री रहता था । हाड गलाने वाली ठंड थी । शाम को अलाव जलाकर अपना बदन गर्म करते थे सब लोग तब जाकर कुछ राहत मिलती थी ।

सब लोगों के आने से खूब रौनक हो गयी थी घर में । श्यामू ने अपने भाई रामू को भी निमंत्रण दे दिया । सरूपी ने सरला को कह दिया कि सबको खाना यहीं खाना है । दोपहर का खाना रखा था श्यामू ने । दिन दिन का कार्यक्रम था शाम तक सब लोगों को वापस लौट जाना था । बस, इतना ही कार्यक्रम था । 

सब लोग हंसी मजाक कर रहे थे । शारदा और कमला रचना को छेड़ रही थी । श्यामू सबकी मेहमाननवाजी भी कर रहा था और घर का काम भी करवा रहा था । गोकल और सरूपी के तो पैर जैसे धरती पर ही नहीं पड़ रहे थे । भगवान ने कितने अच्छे दिन दिखाये हैं, मन ही मन उनके दिल से भगवान के गुणगान की ध्वनि निकलती रहती थी । कभी ऐसे भी दिन थे जब दिन रात क्लेश में ही गुजर जाते थे । ना खाने का मन करता था और ना कुछ करने का । मन अवसादग्रस्त रहता था । जबसे रामू अलग हुआ तबसे माहौल कुछ कुछ ठीक रहने लगा था । 

घर घर के ही आदमी थे इसलिए घर में ही खाना बन रहा था । शारदा, कमला ने रसोई का जिम्मा संभाल लिया था और "ऊपर" के कामों में रचना सहायता कर रही थी । खीर, पुए, हलवा पूरी , छोले और बथुआ का रायता बन रहा था । श्यामू को बथुआ का रायता बहुत पसंद था । 

खाना बनकर तैयार हो गया था । भगवान को भोग लगाया गया और दोनों मेहमान तथा बच्चों को खाना खिला दिया गया । श्यामू ने रामू को भी खाने पर बुला लिया । दोनों भाइयों ने साथ खाना खाया । बड़े प्रेम से बातें भी की । सबने उलाहना भी दिया कि अब तो नये मेहमान की जरूरत है घर में । श्यामू और रचना बस मुस्कुरा कर रह जाते । 

श्यामू ने रामू से कहा "भाभी को भी कह दीजिए ना कि वे भी खाना खा लें" 
"तू ही कह दे" । रामू ने सपाट शब्दों में कहा।
"ठीक है मैं कह देता हूँ" । और यह कहकर श्यामू भाभी सरला को कहने के लिए चला गया । 
"भाभी, आ जाओ ना । खाना ले लो भाभी" । 
सरला ने कोई जवाब नहीं दिया । 
"आ जाओ भाभी, खाना खा लो ना । ठंडा हो जायेगा" । 
"आज मेरा व्रत है" । बड़ा रूखा सा जवाब था उसका 
"आज कौन सा व्रत है" ? 
"एकादशी का" 
"पर वो तो कल है" 
"आज करने पर कोई हर्ज है क्या" ? 

अब श्यामू क्या कहता ? कहने को कुछ बचा ही नहीं था । वापस आकर उसने सरूपी को ये सब बताया तो सरूपी कहने लगी 
"इसने एकादशी का व्रत कबसे शुरू कर दिया ? आज तक तो कभी कोई व्रत किया नहीं सिवाय करवा चौथ के " । सरूपी बड़बड़ाने लगी । 
"जोर से मत बोल मां, भाभी सुन लेगी तो बिना बात के बतंगड़ बन जायेगा । एक काम कर । भाभी को बुला ही ला ना खाने के लिए" । श्यामू ने मां से कहा । 
"ऐसा कर । रचना को बोल वो ले आएगी । रचना, जा बेटी , भाभी को खाने के लिए बोल दे" । 
रचना सरला भाभी को बोलकर आ गयी मगर सरला भाभी खाना खाने नहीं आई । सरूपी ने भी सरला को बोल दिया मगर उसके बाद भी वह खाना खाने नहीं आई । 

घर का माहौल एकदम से खराब हो गया । रंग में भंग पड़ गया था । श्यामू के साले और साली भी यह सब घटनाक्रम देख रहे थे । वे भी हतप्रभ थे । शारदा और कमला तो इस व्यवहार की आदी थी । श्यामू को समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या हो गया जो सरला भाभी खाना नहीं खा रही हैं ? बहुत दिमाग दौड़ाया मगर उसे कुछ याद नहीं आया । 

शेष अगले अंक में 

हरिशंकर गोयल "हरि"
18.12.21 

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1 Comments

रतन कुमार

22-Dec-2021 10:51 AM

Abhi yo thodi thodi hi padi h achi lage aram se beth ke puri paduga me

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