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इंतकाल

इंतकाल 


भाग 1 

पंडित रामनाथ मिश्रा । जाने माने पटवारी । सिद्धांत के पक्के । धर्मनिष्ठ व्यक्ति । रोजाना गीता और रामायण का पाठ करते । मंदिर जाकर भजन कीर्तन करते । माथे पर बड़ा सा तिलक लगाते । चेहरे पर गजब की चमक थी । आत्म विश्वास से लबरेज । होंठों पर हमेशा मुस्कान तैरती रहती थी । बरसों से पटवारी थे 'बेगार' गांव के । उनके पिताजी पंडित उमानाथ मिश्रा भी यहां के पटवारी थे । तब इस गांव का नाम बेगार नहीं था " उबार " था । एक बार ठिकानेदार जी ने अपने लिए हवेली बनवाई । तब पंडित उमानाथ मिश्रा ने उन्हें सौ मजदूर " बेगारी " में भिजवाये थे । उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर ठिकानेदार ने उबार गांव उनकी " जागीर " में दे दिया जो कि " बेगारी " का इनाम था । तब से पंडित उमानाथ मिश्रा इस गांव के जागीरदार बन गये और इस गांव का नाम भी " बेगार " पड़ गया । 
बेगार गांव का सारा लगान उमानाथ मिश्रा को मिलने लगा । पहले पटवारी और फिर जागीरदार , पंडित उमानाथ मिश्रा पर भगवान की कृपा सावन की बरसात की तरह अनवरत होने लगी । 

पंडित उमानाथ मिश्रा के घर छ: बेटियों के बाद पंडित रामनाथ मिश्रा अवतरित हुए तो उनके जन्मोत्सव पर एक  शानदार जलसा आयोजित किया गया । आसपास के 51 गांवों के लोगों को "प्रीतिभोज" दिया गया । पंडित उमानाथ मिश्रा की कमाई हुई समस्त  "धन दौलत"  चाहे उसमें पानी की तरह बह गई लेकिन उनकी प्रतिष्ठा पूरे ठिकाने में स्थापित हो गई थी। फिर,  वे जागीरदार जो बन गये थे तो जनता को भी अपना प्रभुत्व दिखाना था न । इसके लिए पैसा पानी की तरह बहता है तो बहे । अजी , ऐसा " कुंभ का मेला " रोज रोज थोड़ी आता है । स्वर्ग लोक में विराजमान उनके समस्त पूर्वज कितने प्रसन्न हुए होंगे उनकी पद प्रतिष्ठा देखकर ?  वास्तव में उन्होंने अपने खानदान का नाम रोशन कर दिया था । उनकी प्रतिष्ठा से अच्छों अच्छों को रश्क होने लगा । लोग पंडित उमानाथ के उस जलसे को आज तक नहीं भूले हैं। 

पंडित रामनाथ मिश्रा पढ़ने में बहुत होशियार थे । हिसाब किताब करने में पूरे दक्ष । पंडित उमानाथ मिश्रा ऐसा सपूत पाकर अपने आपको धन्य समझते थे । भगवान की इससे बड़ी कृपा क्या होगी कि इकलौता बेटा गुणी निकल जाए वरना ऐसे घरानों के इकलौते चिराग अक्सर अपने और दूसरों के आशियाने ही जलाते हैं । वे निश्चिंत हो गये कि जो जागीरदारी का पौधा उन्होंने लगाया था उसे पंडित रामनाथ मिश्रा अपने परिश्रम और बुद्धिमत्ता से दरख्त बना देंगे । 

लेकिन किस्मत को तो कुछ और ही मंजूर होना था । आदमी कितने सपने बुनता है मगर होता वही है जो ऊपर वाले ने निर्धारित कर रखा है पहले से ही । भारत में स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था । 15 अगस्त 1947 को  भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हो गया । नये नये कानून बने । राजस्थान का भी पुनर्गठन  हुआ । समस्त रियासतें समाप्त हो गई ।  जागीर भी समाप्त कर दी गई । इस चक्कर में " बेगार " गांव की जागीर भी समाप्त हो गई ।  पंडित उमानाथ मिश्रा क्या करते भला? उनके वश में क्या था ? उन्हें अपने नौनिहाल पंडित रामनाथ मिश्रा का भविष्य अंधकारमय नजर आने लगा । उन्होंने सोचा कि यदि पंडित रामनाथ मिश्रा यदि पटवारी बन जायें , तो यह भी कोई जागीर से कम नहीं है ?  उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए पंडित रामनाथ मिश्रा को पटवारी बनवा ही दिया । 

पटवारी गांव का मालिक होता था उन दिनों । प्रशासन और राजस्व की सबसे छोटी इकाई पटवारी ही होता है । राजस्व रिकार्ड उसी के पास होता है । किसकी कितनी जमीन है , कौन सी है , इसका पूरा हिसाब " जमाबंदी " में रहता है । जमाबंदी को हम जमीन का खाता भी कह सकते हैं । जमीन पर किसने कौन सी जिन्स की काश्त की है इसका विवरण " खसरा गिरदावरी " में रहता है । अगर कोई काश्तकार मर जाता है तो उसके वारिसानों का नाम जमाबंदी में लिखने के लिए " इंतकाल " खुलवाना पड़ता है । इसे नामांतरकरण भी कहते हैं । यह इंतकाल पटवारी भर कर तहसीलदार के समक्ष प्रस्तुत करता है और फिर उसे तहसीलदार द्वारा स्वीकार या अस्वीकार कर दिया जाता है  । सामान्यतः बड़े पुत्र के नाम सारी जमीन कर दी जाती थी उन दिनों में ।  यद्यपि 1956 में " हिन्दू  उत्तराधिकार अधिनियम " कानून बन चुका था लेकिन पटवारी लोग मनमाने तरीके से इंतकाल खोल रहे थे । इस कारण राजस्व विवाद बड़ी तेजी से बढ़े । मौका रिपोर्ट तैयार करने में पटवारी की भूमिका बहुत बड़ी होती थी । उन दिनों काश्त के आधार पर खातेदारी दे दी जाती थी । कहावत है कि " झगड़ा झूठा और कब्जा सच्चा " । बस इसी बात का पूरा फायदा पटवारी उठाते थे । जिसका चाहा उसका कब्जा दिखा दिया और उसे खातेदार बनवा दिया । अब पटवारी किसी का भी भाग्य बना और बिगाड़ सकता था । इसलिए  सब लोग भगवान के बाद पटवारी का ही आदर सत्कार करते थे । किसानों के लिए तो पटवारी भी भगवान से किसी प्रकार भी  कम नहीं होता था । 

पटवारी पंडित रामनाथ मिश्रा का घर धन धान्य से परिपूर्ण रहता था । गेंहू , जौ , चना , ज्वार , बाजरा , मक्का , दाल , तिल, मसालों , देसी घी से घर भरा पड़ा रहता था । काश्तकार कभी खाली हाथ उनके घर नहीं आता था । कुछ न कुछ लेकर ही आता था । कहते हैं कि भगवान के घर " मंदिर " जाओ तो कभी खाली हाथ मत जाओ ।  पटवारी जी का घर भी कोई मंदिर से कम नहीं था। इस लोकोक्ति को सभी ग्रामीण गीता के वचन की तरह निभाते थे । इसलिए पंडित रामनाथ मिश्रा के घर पर जाते समय लोग " प्रसाद" ले जाना नहीं भूलते थे । पटवारी जी के घर में किसी चीज की कोई कमी नहीं थी । 

एक बार पंडित रामनाथ मिश्रा की साली उनके यहां कुछ दिन रहने आ गई । उसके पति लखनऊ के  " कलेक्टर " थे । वह अपनी बड़ी बहन " पटवारिनजी " के ठाट बाट देखकर चकित हो गई और वापस जाकर अपने पति से पूछा कि " यह बताओ , पटवारी बड़ा होता है कि कलेक्टर "? कलेक्टर साहब जोर से हंसे और कहा ऐसा क्यों पूछ रही हो ? तो वह बोलीं " दीदी के घर तो अनाज , दाल, मसाले , तेल , घी सबके कोठे भरे पड़े हैं मगर हमारे घर में तो यह सब चीजें डिब्बों में ही मिलतीं हैं । अब आप ही बताइए न कि कौन बड़ा है ?  पटवारी या कलेक्टर "? कलेक्टर  साहब अपनी पत्नी की मासूमियत और उसके तर्क पर कुर्बान हो गए । वो केवल मुस्करा कर रह गए । 

पंडित रामनाथ मिश्रा उसूलों के पक्के थे । कभी भी अपने अफसर तहसीलदार , नाजिम साहब और कलेक्टर साहब के घर खाली हाथ नहीं जाते थे । उन्होंने नियम बना रखा था कि हर सप्ताह तहसीलदार जी के,  हर पखवाड़े नाजिम साहब आजकल उन्हें " उपखंड अधिकारी " कहते हैं ,  हर महीने कलेक्टर साहब के घर जाना ही जाना है बिना किसी काम के । ये समस्त घर मंदिर ही हैं और मंदिर में कभी खाली हाथ नहीं जाते । इसलिए पटवारी जी अपने साथ हमेशा तहसीलदार जी के लिए मिठाई और नाजिम साहब तथा कलेक्टर साहब के घर " ड्राई फ्रूट्स " लेकर ही जाते थे । देवता भी छोटे बड़े होते हैं ना । इसलिए " देवता " की ताकत के अनुसार " प्रसाद " भी वैसा ही चढ़ाया जाता था । जब कभी मिठाई नहीं होती तो मिसरी की डली , गुलकंद वगैरह ले जाते थे ।   बड़े हाकिम साहब हैं इसलिए " दर्शन लाभ " करना बहुत जरूरी होता है तभी जिंदगी में " लाभ और शुभ " रहता है । इसी का परिणाम है कि वे इस बेगार गांव के पटवारी हमेशा से रहे हैं । आज तक या तो उनका स्थानांतरण हुआ नहीं या फिर किसी ने कर भी दिया तो दो दिन में निरस्त करना पड़ा । पूरी तहसील में उनका प्रभाव था । उपखंड अधिकारी कार्यालय और कलेक्ट्रेट में भी उनकी पहुंच नाजिम साहब और कलेक्टर साहब तक सीधे थी ।
सुबह-सुबह अपने घर के आंगन में एक दरबार लगाते थे । दस बीस किसान उनकी सेवा में हरदम बैठे रहते थे । वे हुक्का गुड़गुड़ाते थे इसलिए कोई चिलम भर लाता तो कोई पानी बदल देता था । सब लोग बड़े सेवा भावी थे । उसी दरबार में पूरे गांव की रोजाना की रिपोर्ट ली जाती थी । कौन मरा ? किसके बच्चा पैदा हुआ ? किसकी शादी किसके साथ कहां से हुई ? कितना दायजा ( दहेज ) लिया दिया । वगैरह । यहां तक कि किसका किसके साथ नैन मटक्का चल रहा है , इसकी जानकारी भी उस दरबार में मिल जाती थी । 
फसल कैसी है ? किसने किस खेत में क्या बोया है ? किसकी किससे लड़ाई हो गई है ? कौन कौन कोर्ट कचहरी जा रहा है ? पूरा कच्चा चिट्ठा वहां उन्हें मिल जाता था । अगर गांव में कोई सांप्रदायिक या जातिगत तनाव भी पैदा होता तो उसकी सूचना सबसे पहले पटवारी जी को ही मिलती थी । इस सूचना को वे तहसीलदार एवं नाजिम साहब तक पहुंचा देते थे इसलिए अधिकारियों में उनकी छवि बहुत बढ़िया थी । ऐसे लगता था कि बिना पंडित रामनाथ मिश्रा के यह गांव कैसे जिंदा रह पाएगा ? 

उसूलों के एकदम पक्के थे पंडित रामनाथ मिश्रा। उनका एक ही उसूल था कि कोई भी काम करवाना हो तो " नजराना , फसलाना , मेहनताना " तो देना ही पड़ेगा ना । बिना इन सबके कुछ नहीं हो सकता है । फिर जैसा काम वैसा ही " मेहनताना " भी । गांव के सब लोग पंडित जी से अच्छी तरह से वाकिफ थे तो " नजराना , फसलाना , मेहनताना " देने में कोई दिक्कत नहीं थी । पर कभी कभी अति उत्साही नवयुवक " ईमानदारी " का चोला पहन लेता था और कहता कि पटवारी जी को काम करने का वेतन सरकार देती है तो हम " नजराना , फसलाना , मेहनताना " क्यों दें ? 

पंडित जी बड़े सज्जन व्यक्ति थे । वे भी कहते थे कि बिलकुल सही बात है । "नजराना , फसलाना, मेहनताना" किसी को बिल्कुल भी नहीं देना चाहिए और वो कोई मांगते थोड़े ही हैं । लोग तो "देवता" के चरणों में चढ़ावा देकर जाते हैं । और हम लोग तो बहुत ही संस्कारी व्यक्ति हैं । इसलिए " चढ़ावे " का अपमान करने की हिम्मत कौन करे ? और धीरे धीरे यह परंपरा ही बन गई । पंडित जी की एक विशेषता थी कि वे कभी भी सौदेबाजी ( बारगेनिंग ) नहीं करते थे । लोग कहते हैं कि पंडित जी की जिव्हा पर सरस्वती जी का वास रहता है इसलिए वे कभी मिथ्या बात अपनी जुबान पर लाते ही नहीं थे । इसलिए उनका हर एक वाक्य पत्थर की लकीर की तरह था । जितना कह दिया उतना ही " मेहनताना " देना है । लोगों को कभी तंग नहीं करते थे । उन्हें अपना " नजराना , फसलाना , मेहनताना " जैसे ही मिल जाता तुरंत उसी दिन या अगले दिन वह काम पूर्ण हो जाता । पंडित रामनाथ जी की चारों ओर जय जयकार सुनाई देती थी । लोग कहते हैं कि " देवता " आदमी हैं । 

नित्य कर्म के पक्के थे पंडित रामनाथ मिश्रा । दरबार खत्म कर सीधे ही नहाने धोने का काम करते और पूजा में बैठ जाते । इस बीच कोई काश्तकार अपने किसी काम के लिए आ जाता तो पंडिताइन बाहर बरामदे में बैठीं रहती थीं । " नजराना वगैरह " के बारे में पूछ लेती । यदि कोई खाली हाथ आता था तो उसे भी ठंडा पानी और चाय पिलाई जाती थी । पंडिताइन कहतीं " पटवारी जी अभी कभी पूजा पर बैठे हैं । पता नहीं कितना समय लगेगा ? यदि आप बैठ सकते हो तो बैठ जाओ "? काश्तकार बैठ जाता तो इसकी सूचना पटवारी जी तक पहुंच जाती । फिर उनकी पूजा अनंत काल तक चलती लेकिन काश्तकार का धैर्य जवाब दे जाता और वह काश्तकार वहां से चल देता था । जैसे ही वह वहां से जाता पटवारी जी की पूजा वही समाप्त हो जाती । दूसरे दिन वह फिर आता और यह कहानी फिर दोहराई जाती । काश्तकार फिर लौट जाता । काश्तकारों के नसीब में " देवता " के दर्शन करना इतना आसान तो नहीं था । फिर काश्तकार किसी "पुजारी" की शरण में जाता । पुजारी उसे पूजा की विधि समझाता और " सामग्री की सूची" पकड़ा देता । काश्तकार उन सभी सामान के साथ पटवारी के पास जाता । उस दिन पूजा तुरंत खत्म हो जाती और काश्तकार का काम भी उसी दिन हो जाता था । 

अब यह एक परंपरा ही पड़ गई थी । सब लोग " नजराना , फसलाना और मेहनताना " लेकर ही आते थे और पटवारी जी उनका काम हाथों हाथ कर देते थे । सब लोग जय जयकार करते । पंडित रामनाथ मिश्रा अपने आप को धन्य मानने लगे । 

एक दिन दरबार में बैठकर पटवारी जी हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे तो महतो ने बताया कि रमझू की कल मौत हो गई थी । पटवारी जी को याद था कि रमझू के कुल पांच खेत थे और करीब पचास बीघा जमीन उसके खाते में थी । रमझू के देहांत के पश्चात "इंतकाल" उसके बेटों के नाम खोला जाना था । उन्होंने मन ही मन " नजराने" का हिसाब लगा लिया । पांच सौ रुपया बीघा भी कम से कम लिया जाये तो पच्चीस हजार रुपए बनते हैं । फिर जमीन भी तो " चाही " अर्थात सिंचित श्रेणी की है जो सोना उगलती है । पच्चीस हजार तो बनते हैं , इससे कम में काम नहीं होगा । महतो ने वैसे ही पूछ लिया कि रमझू का छोरा शिवचरण अगर नजराना के बारे में पूछ ले कितना बताना है ? पटवारी जी कभी अपने मुंह से नजराना वगैरह की बात नहीं करते थे । इतने धरम करम वाले आदमी होकर नजराना की बात करेंगे ? सोचना भी पाप है । अतः महतो जैसे लोग हैं ना ये छोटे मोटे काम करने के लिए । पंडित जी को अपनी जुबान गंदी करनी ही नहीं पड़ी आज तक । महतो खुद ही बोल पड़ा । पच्चीस तो बनते हैं पटवारी जी । पटवारी जी ने कहा दिया " जैसी तेरी इच्छा , महतो " । महतो को हरी झंडी मिल गई । 

जब रमझू का बारहवां हो गया तो एक दिन शिवचरण पटवारी जी के घर पर आया । पटवारी जी तो पूजा में लीन बैठे थे । शिवचरण थोड़ी चालाकी करना चाह रहा था । उसका कहना था कि भगवान के मंदिर में जाने के लिए " प्रसाद " की कोई जरूरत नहीं है । ये तो सरासर बगावत थी । पंडित जी थोड़े उग्र हुए । लेकिन पूजा में बैठे थे तो पूजा में उग्र होना ठीक नहीं था । इसलिए वो देर तक पूजा करते रहे । थक हार कर शिव चरण लौट गया । उसके दो घंटे बर्बाद हो गये थे । फसलों में पानी भी देना था उसे , मगर क्या करे वो ? 

दूसरे दिन वह थोड़ा जल्दी आया । मालूम चला कि पंडित जी अभी नहा रहे हैं । तो वह बैठक में रखे मूढ़े पर बैठ गया । महतो ठंडा जल लेकर आया । ठंडा जल पिलाने में पटवारी जी बहुत उदारता बरतते थे । वैसे देखा जाए तो उनका कोई दुश्मन था ही नहीं । वे सबको ठंडा जल पिलाकर थोड़ा "पुण्य" कमा लेते थे । शिवचरण को भी दो तीन बार ठंडा जल पिलाया गया । पंडित जी अपने कर्त्तव्य और उसूलों के एकदम पक्के थे । ठंडा जल पिलाना उनका कर्तव्य था इसलिए इसमें कोई कमी नहीं छोड़ते थे । उसी तरह बिना " नजराना , फसलाना , मेहनताना " लिये वो काम कर नहीं सकते , यह उनका उसूल था और अपने ही उसूल को तोड़ दें, पंडित जी इतने अधर्मी इंसान तो नहीं थे ना । 

शिवचरण दो तीन घंटे बैठकर चला गया । जब वह चला गया तो पटवारी जी की पूजा भी खत्म हो गई । एक दिन रास्ते में पटवारी जी को शिवचरण मिल गया । शिकायत करने लगा कि " इन्तकाल " खुलवाने के लिए वह पंडित जी के घर दो बार गया था लेकिन आप पूजा में थे । पंडित जी खींसे निपोरते हुए कहने लगे " आजकल "नवा परायण"  कर रहा हूं न इसलिए दो से तीन घंटे लगते हैं । पंडित जी की धर्म परायणता देखकर शिवचरण गदगद हो गया । कहने लगा " पंडित जी , आप जैसे धर्म परायण लोगों के कारण ही यह धरती बची हुई है नहीं तो अब तक पाताल लोक में समा जाती " ।  पंडित जी ने कहा " सब ऊपर वाले की कृपा है । उसका हुक्म बजा लेते हैं हम तो " 
" पंडित जी , आपको तो पता ही है कि मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया है । आपकी कृपा हो जाए तो हमारा ' इंतकाल ' खुल जाए " । 
" अरे हां , वो महतो कह रहा था तुम्हारे पिताजी के स्वर्गवास के बारे में " पटवारी जी ने जान बूझकर महतो का जिक्र किया । 
" पटवारी जी , महतो तो पच्चीस की कह रहा था । पर इतना पैसा कहां से लायें ? कुछ कम नहीं हो सकता है "? 
" राम राम , ये क्या अनर्गल बातें कर रहे हो , शिवचरण ? महतो ऐसे कैसे कह सकता है । ऐसी वाहियात बातें मुझसे मत किया करो । आज की पूजा खंड खंड करा दी  है तू ने । अब मुझे घर जाकर दुबारा से पूजा करनी पड़ेगी । और खबरदार , भविष्य में मुझसे ऐसी वाहियात बातें की तो । सारे गांव का हुक्का-पानी बंद करा दूंगा "? 

इतना कहकर पंडित जी तेज तेज कदमों से वहां से चले गए । शिवचरण को समझ ही नहीं आ रहा था कि उसने ऐसी कौन सी गलत बात कह दी है ? जो कुछ महतो ने कहा , बस वही तो बोला था उसने पंडित जी को । क्या महतो कुछ गडबड कर रहा है बीच में ? लगता तो ऐसा ही है । पंडित जी तो इतने मिलनसार , धरम करम वाले और नित्य नेम करने वाले आदमी हैं । पंडित जी पैसे धेलों की बात कर ही नहीं सकते हैं । 

वह अपने घर चला गया । एक दिन उसे महतो मिल गया । शिवचरण ने उससे कहा कि पंडित जी तो पैसे धेले की बात सुनकर ही भड़क गए और तुम पच्चीस पच्चीस कर रहे हो ? 
महतो बिना कुछ कहे तेजी से आगे बढ़ गया । शिवचरण के कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब वह करे तो क्या करे ? उसने तहसीलदार जी से मिलना मुनासिब समझा । 

एक दिन वह सुबह सुबह घर से चलकर तहसील चला गया । तहसीलदार जी कहीं मौका मुआयना के लिए गये हुए थे । सुबह से भूखा प्यासा उनका इंतजार करने लगा । लगभग चार बजे तहसीलदार जी तहसील में पधारे तो लोगों की भीड़ अपने अपने काम के लिए टूट पड़ी । आते ही सबसे पहले उन्होंने बच्चों के जाति प्रमाण पत्र और मूल निवास प्रमाण पत्र निबटाए । फिर दूसरे काम निबटाने लगे । शिवचरण का नंबर छः बजे आया । उसने तफसील से सारी बात बताई । तहसीलदार ने कहा " पंडित रामनाथ मिश्रा हमारी तहसील ही नहीं पूरे जिले के सबसे अच्छे पटवारी हैं और तुम उनकी शिकायत कर रहे हो ? उन पर झूठा आरोप लगा रहे हो ? वे तो बहुत धर्मनिष्ठ व्यक्ति हैं , उन पर ऐसा घिनौना आरोप लगाना ठीक नहीं है " । यह कहकर उन्होंने शिवचरण को दुत्कारते हुए भगा दिया । 

शिवचरण सुबह का भूखा प्यासा था और खाने में उसे आज तहसीलदार की डांट मिली । उसकी आत्मा रो पड़ी । इतना अपमान ! कौन सा गलत काम करा रहा है वो ? अपने बाप की मौत पर खाते में अपना नाम ही तो दर्ज कराना है । यह काम तो सरकार को खुद करना चाहिए लेकिन इतने चक्कर काटने और इतना अपमान सहने के बावजूद कुछ नहीं हो रहा है । उसने कलेक्टर साहब से मिलने की सोची । 

रात को वह घर आ गया । उसकी घरवाली भौती ने खाना लगा दिया लेकिन उसे भूख कहां थी ? भूख प्यास सब उड़ गई थी । भौती उसके पैरों के पास बैठ गई और धीरे धीरे उसके पैर दबाने लगी । खामोशी तोड़ते हुए धीरे से बोली " सुनो जी , एक बात कहूं तो बुरा तो नहीं मानोगे ना "? 
शिवचरण ने जब ये शब्द सुने तो  अपनी घरवाली पर उसे बहुत दया आई । कहने लगा " बोलो बोलो । जो भी कहना है कहो " 
" वो , महतो की बात मान लो न । मुझसे आपकी ये परेशानी देखी नहीं जाती है । हम तो जैसे तैसे कर लेंगे पर आप ऐसे घुटते रहें , हमसे सहन नहीं होता है " । और भौती की आंखों से प्रेम की बरसात होने लगी जो शिवचरण के पैरों को भिगोने लगी । 
शिवचरण एक बारगी अवाक रह गया । उसे उम्मीद नहीं थी कि उसकी परेशानियों को भौती इतनी सूक्ष्मता से लेती है । उसने उसके आंसू पोंछते हुए कहा कि " तू चिंता मत कर । मैं कल कलेक्टर साहब से मिलकर आऊंगा । सब ठीक हो जाएगा । जा तू , अब जाकर सो जा " 

पर उसकी आंखों में नींद कहां थी । रात के दो बजे के आसपास उसे नींद आई होगी । सुबह होते ही नित्य कर्म कर वह कलेक्टर साहब से मिलने चला गया । 

कलेक्टर साहब सुबह से ही मीटिंग्स में व्यस्त रहे । आज राजस्व अधिकारियों की बैठक थी । दोपहर चार बजे तक चली । तब तक शिवचरण वहीं खड़ा रहा । मीटिंग खत्म होने पर वह कलेक्टर साहब से मिला और अपनी समस्या बताई । कलेक्टर साहब ने पी ए को फोन पर कहा कि तहसीलदार जी अभी यहीं होंगे उनसे कहना कि वे उनसे मिलकर जायें । शिवचरण को उन्होंने आश्वस्त कर दिया ।

 शिवचरण खुशी खुशी घर वापस आ गया । आज उसे बड़ी तेज भूख लग रही थी । भौती ने शिवचरण का मुस्कुराता चेहरा देखा तो वह भी हरी हो गई । भारतीय नारियां अपने पति और बच्चों के दुख से दुखी और उनके सुख से सुखी होतीं हैं । बड़े प्रेम से उसने शिवचरण को भोजन की थाली परोसी और सामने बैठकर पंखा झलने लगी । बिना कुछ कहे सुने ही सब बातें वह समझ गई थी । 

कलेक्टर साहब ने तहसीलदार को कह दिया कि उसका इंतकाल खोल दें । वो तो पटवारी जी को स्वयं कलेक्टर साहब जानते हैं । होली दीवाली और अन्य अवसरों पर दुआ सलाम करने आते हैं इसलिए पटवारी जी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रहे हैं नहीं तो उन्हें निलंबित कर देते । तहसीलदार ने कहा कि सर , यह काम कल ही करवा दूंगा । 

पटवारी पंडित रामनाथ मिश्रा के पास तहसीलदार का बुलावा आया । पंडित जी पूजा में थे । जैसे ही पता चला कि तहसीलदार जी का बुलावा आया है , तुरंत पूजा समाप्त की और चल दिए । तहसीलदार ने सब वाकया कह दिया जो कलेक्टर साहब ने कहा था और पंडित जी को सख्त हिदायत दी कि उन्होंने कलेक्टर साहब को वादा किया है आज इंतकाल खुलवाने का । इसलिए उन्हें यह काम अभी करना होगा । 

पंडित रामनाथ मिश्रा तो हाकिमों के आदेश के गुलाम ठहरे । कहा " हुजूर के आदेशों की पालना होगी " । और उन्होंने इंतकाल वहीं भर कर पेश कर दिया । तहसीलदार ने भू अभिलेख निरीक्षक को बुलवा कर वहीं हस्ताक्षर करवा लिए और इंतकाल तस्दीक कर दिया । जब सत्ता चाहती है कि कोई काम आज ही होना चाहिए तो वह काम अभी हो जाता है नहीं तो बरसों लग जाते हैं उसे होने में । 

शिवचरण के घर पोस्टमैन आया और उसने एक बंद लिफाफा उसे पकड़ाया । जैसे ही शिवचरण ने उसे खोला उसमें से इंतकाल की प्रति निकली । शिवचरण खुशी से फूलकर कुप्पा हो गया और उसने जोश में पोस्टमैन को बख्शीश में सौ रुपए का नोट पकड़ा दिया । भौती भी वहां आ गई और सब लोग खुशी मनाने लगे । आखिर मेहनत रंग लाती ही है । 

अचानक सामने से महतो गुजरा । महतो को देखकर शिवचरण को गुस्सा आया मगर अब तो उसका काम हो चुका था इसलिए आज तो उसने महतो की उतारने की ठान ली । आवाज लगाकर उसने महतो को बुलाया । कहने लगा " बहुत पच्चीस पच्चीस कर रहे थे ना । ये देख । फ्री फंड में खुलवा लिया इंतकाल " । इतना कहकर उसने इंतकाल हवा में लहराया । 
महतो ने कहा " क्या इसे मुझे दिखा सकते हो "? 
शिवचरण तो आज सातवें आसमान पर था , लपक कर बोला " तू भी देख ले और तेरे पटवारी जी को भी दिखा दे " । 

महतो ने इंतकाल लिया । उसे गौर से देखा और बुक्का फाड़ कर हंसने लगा । अब चौंकने की बारी शिवचरण की थी । उसने आश्चर्य से महतो की ओर देखा । 
महतो पेट पकड़ कर हंस रहा था । हंसते हंसते बोला " एक बार पढ़ तो लेता इसे । इंतकाल खुल तो गया है लेकिन तेरी ज़मीन किसी दूसरे शिवचरण के नाम हो गई है । तेरे बाप का नाम तो रमझू है लेकिन जो इंतकाल खोला है वह शिवचरण पुत्र बोदन जाति नाई के नाम खोला है जबकि तू तो धाकड़ है ना । अब तेरी ज़मीन  शिवचरण नाई के नाम आ गई है । अब तेरा इस जमीन पर कोई हक नहीं रहा है " । और यह कहकर महतो आगे बढ़ गया । 

शिवचरण और भौती दोनों वहीं पर बेहोश होकर गिर पड़े । 

हरिशंकर गोयल "हरि"


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2 Comments

रतन कुमार

22-Dec-2021 10:49 AM

Badiya kahani

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Hari Shanker Goyal "Hari"

25-Dec-2021 07:50 AM

आभार आपका जी

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