Arti Gaur

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जिन्दगी

जिन्दगी
क्षीण हो गयी
अब जिन्दगी की शाम
दौड धूप है अधिक
रह गया कम काम

औहदा इंसान का छोटा
है बडा पदनाम
नही रही लिहाज उम्र की 
लुप्त हो गया सम्मान

जितनी बडी है समस्यायें
घट गया उतना समाधान
बोल बाला हे उसी का
पास जिसके प्रचुन है धन–धान

गरीब की कहीं पूछ नही
अमीर बनकर घूम रहा भगवान
दौलत की माया में
मानवता भूल गया इन्सान

यहां झूठ से शुरू होती है सुबह
फरेब पर खत्म होती है शाम
बैरागी हो गया हृदय मेरा
क्या दूं मै इस जंहा को नाम

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