लक्ष्य
विधा – कहानी
विषय – लक्ष्य
रचना –
मध्यप्रदेश के मनासा नामक गाँव (जो वर्तमान में नीमच जिले की एक तहसील हैं) में एक सुरेश नाम का लड़का रहता था। सुरेश का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था, जो इतना गरीब था कि खाने हेतु दो वक्त की रोटी भी, सभी परिजनों को नसीब नहीं हो पाती थीं। बारिश के समय में रहने लायक घर नहीं था अपितु घर के रूप में मात्र एक कच्चा कमरा था। जिसकी छत के रूप में लगे हुए त्रिपाल में से अनवरत पानी टपकता रहता था। परिवार अत्यंत गरीब होने के कारण उसे अन्य बच्चों की तरह, शिक्षा प्राप्त करने का अवसर भी नहीं मिल सका। और बेहद कम आयु में ही उसे मजदूर बनना पड़ा। लेकिन लेखन एवं पाठन में बचपन से उसकी बहुत रुचि थी। प्रसिद्ध एवं सच्चे कवियों को सुनना, पढ़ना, भजन संध्या एवं धार्मिक कार्यक्रमों का हिस्सा बनना सुरेश को भीतर से आनंदित करता था।
एक ओर तो सुरेश का गरीबी से झुँझ रहे परिवार में जन्म, एवं दूसरी ओर घर के आस पास का उदासीन वातावरण। उक्त दोनों तथ्यों के चलते एवं काम में व्यस्त रहने के आगे, उसे जीवन में लक्ष्य शब्द के विषय में जानकारी प्रदान करने वाला कोई व्यक्तित्व भी नहीं मिल पाया। लेकिन उसमे एक विशेषता थीं। चाहे कोई भी कार्य हो वह उसे पूर्ण निष्ठा और लगन से करता था। प्रजापति परिवार में जन्म होने के कारण, दिये बनाना, मूर्ति बनाना, मटके बनाना एवं मिट्टी की अन्य सामग्री बनाना भी उसे आता था। इसके अतिरिक्त वह रंगाई, पुताई एवं चित्र बनाने जैसी कलाओं में भी निपुण था। लेकिन इन सभी कार्यों के अतिरिक्त उसकी रुचि लेखन में होने के कारण वह लेखन एवं साहित्य के क्षेत्र में भी आगे बढ़कर, अपने उस लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता था। जिस लक्ष्य के बारे में भले, उसको किसी ने कुछ भी नहीं बताया हो। लेकिन फिर भी वह एक लक्ष्य, जो की लेखन क्षेत्र में एक विशेष पहचान बनाना था। अप्रत्यक्ष रूप से उसके हृदय में एवं मस्तिष्क में स्थायी रूप से विद्यमान था। तथा इसके लिए वह अनेक धार्मिक पुस्तकें एवं साहित्यिक पुस्तकों का अध्ययन भी, अपने काम से समय निकालकर, करता रहता था। कुछ समय पश्चात उसने लेखन कार्य भी प्रारंभ किया एवं साहित्य सृजन में भी कुछ समय देने लगा। तत्पश्चात क्षेत्र के कईं कवियों का सानिध्य भी उसे प्राप्त हुआ एवं नगरीय स्तर पर आयोजित काव्य गोष्ठियों में भी वह जाने लगा।परिवार की स्थिति अब पहले से कुछ बेहतर हो गई थी। लेकिन दिन–रात मेहनत मजदूरी करने के बाद भी वह अपने लक्ष्य(लेखन के क्षेत्र में एक विशेष पहचान बनाना) को कभी भी अपने मस्तिष्क से दूर नहीं होने देता था।
सुरेश ने भले उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं की थी लेकिन धार्मिक एवं साहित्यिक पुस्तकों के अध्ययन के कारण उसकी भावनाएँ सदा उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों से बेहद ऊपर थीं। कुछ दिनों बाद सुरेश का विवाह भी संपन्न हुआ। इसलिए अब जिम्मेदारियों का बोझ और भी बढ़ गया था। लेकिन फिर भी वह निरंतर अपने कार्य एवं लक्ष्य के लिए प्रयासरत रहा। साथ ही अब विद्यालय से आने के बाद उसके बेटे भी कार्य में मदद कर दिया करते थे। चित्रकारिता एवं मूर्तिकारिता के क्षेत्र में उसने अब तक बेहद पहचान बना ली थी। साथ ही अपने बेटों को भी इस कार्य में पूर्णतः निपुण कर दिया था। जिससे पूरा काम उसकी संतति संभालने लगी। अब सुरेश की भी आयु इतनी हो गई थी की उस आयु में प्रत्येक व्यक्ति अपने बचपन के लक्ष्य को भूल ही जाता हैं। और मात्र बैठकर जीवन भर की गई कठोर मेहनत की थकान उतारने लगता हैं। लेकिन सुरेश की अंतस की सकारात्मकता कुछ भिन्न प्रारूप की थी। अब सुरेश अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दिन–रात अथक प्रयास करने लगा। इस दौरान कईं लोग कार्य के प्रति उसकी सच्ची श्रद्धा देख, उस पर जलते भी थे। लेकिन जीवन में आने वाली ऐसी अगणित समस्याओं का सामना करते हुए अंततः उसने अपनी एक पुस्तक लिखकर प्रकाशित करवाई। और उसके बाद माता सरस्वती की आराधना एवं शब्दों की साधना करने वाले एक सच्चे साधक "सुरेश" के पूरे जीवन के निचोड़ के रूप में प्रस्तुत, उस पुस्तक ने उसे सीधे उस लक्ष्य तक पहुँचा दिया जिसके सपने उसने बचपन में देखे थे। और उसी पुस्तक ने गरीब परिवार में पले बढ़े, एक कम पढ़े हुए लड़के को भी साहित्य के क्षेत्र में संपूर्ण राष्ट्र में एक विशेष पहचान प्रदान की। क्योंकि उस पुस्तक के कारण, साहित्य के क्षेत्र से, सुरेश को इंडिया ३० अचीवर अवार्ड के लिए चुना गया। और उस दिन स्वयं एसडीएम एवं तहसीलदार सहित कईं प्रशासनिक अधिकारीयों ने सुरेश के घर जाकर उस सम्मान के लिए उसे निमंत्रण प्रदान किया। इसके पश्चात सुरेश को अनेकानेक संस्थाओं ने कईं बार विभिन्न सम्मान एवं उपाधियों से भी सम्मानित किया।
उक्त कहानी में जिस पुस्तक का ज़िक्र किया गया हैं उस पुस्तक का नाम हैं,"तरकश के तीर"
और उक्त सच्ची कहानी जिस सुरेश के विषय में लिखी गई हैं। साहित्य के क्षेत्र में उनका नाम हैं। "कवि दादू प्रजापति"
एक निर्धन परिवार में जन्में, साहित्यकारों के प्रेरणापुरुष, आदरणीय श्री दादू जी प्रजापति आज भी मध्यप्रदेश के नीमच जिले की तहसील मनासा में निवास करते हैं। आज उनके पास बेहद बड़ा घर भी हैं। जो की अपने आप में पारिवारिक स्नेह की अभूतपूर्व मिसाल हैं। जिसमे वे अपनी पत्नी, बेटे, बहुओं एवं पौत्रियों के साथ कुशल जीवन व्यतीत कर रहे हैं। साथ ही उन्होंने अपने जीवन में बालकवि बैरागी जैसे महान कवियों के साथ काव्य पाठ करके, उन परिस्थितियों में भी, जीवन के लक्ष्य को हासिल किया। जिन परिस्थितियों में एक साधारण व्यक्ति के लिए जीवन जीना भी दुश्वार हो जाता हैं। और इसका मात्र एक ही कारण हैं कि उन्होंने अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्प किया और मार्ग में आनी वाली अनंत परेशानियों का सामना किया एवं जीवनपथ की विशेष बाधा गरीबी को भी ईश्वर की भेंट समझकर स्वीकार करते हुए सदा, लक्ष्य प्राप्ति हेतु कर्म करने में विश्वास रखा।
"स्वरचित मौलिक रचना"
चिराग़ जैन "चैतन्य"
कार्य – विद्यार्थी
वर्तमान पता – भरूच(गुजरात)
स्थायी पता – नीमच(मध्यप्रदेश)