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तुम्हारे रंग में...!! भाग - 1

सुनो...."!! तुम्हारे रंग में सिर्फ़ मैं ही नहीं मेरा पूरा शहर रंग चुका है। पूरे शहर में जहां भी जाती हूं, कुछ न कुछ तुमसे जुड़ा दिख जाता है। वे चीजें भी दिख जाती है जिसे पहले मैं कभी नहीं देखती थी। जैसे:-  मेरी गली के अंत मे वो विशाल गुलमोहर का पेड़, तुमने कहा था न गुलमोहर के फूल बड़े पसंद है तुम्हें। यकीन करो अब मुझे भी पसन्द है।
फिर सड़क के किनारे नारायण मिष्ठान भंडार के झक सफ़ेद रसगुल्ले इनपर भी नज़र पड़ ही जाती है। एक रोज कितने मासूमियत से कहा था तुमने "चलो न रसगुल्ले खाते है, सुना है कलकत्ते के रसगुल्लों का एक अलग ही स्वाद होता है"। और देखते ही देखते पूरे 36 रसगुल्ले खा लिए थे तुमने,और 36 दफा तारीफ़ की थी नारायण दा की। बेचारे ने तो तारीफ़ से ही जेबें भर ली एक रुपया भी नहीं लिया तुमसे। सच शब्दों के जादूगर हो तुम। एक बात कहुँ देखो हँसना मत...रसगुल्लों के प्रति तुम्हारी दीवानगी को देखकर ही मैंने रसगुल्ले बनाना भी सिख लिए, पर यूट्यूब से देखकर। पता नहीं नारायण दा के रसगुल्ले जितने स्वादिष्ट लगेंगे या नहीं तुम्हें। कुछ इस तरह तुम शामिल हो गए हो मेरे शहर की गलियों में हर चीज  तुम्हारी याद दिला जाती है। तुम्हारे साथ बैठकर जहां कॉफ़ी के मज़े लिए थे। कॉफ़ी ना पसंद थी फ़िर भी उस बकवास कॉफ़ी की तारीफ़ की थी। अब तुम नहीं हो तो फ़िर से वही कॉफ़ी पीने को दिल चाहता है पर तुम्हारे साथ। तुम्हें आश्चर्य होगा किताबों से भागने वाली लड़की मैं, आज मेरे पास दर्जन भर से अधिक किताबे है। जब तुमने कहा था, किताबें और लंबी कहानियां पढ़ना पसन्द है तुम्हें, और मेरे पास अगर रविन्द्र नाथ टैगोर जी की किताबें हो तो अगली बार मैं लेती आऊं। कितनी चालाकी से नजरें नीचे गड़ाए ही मैंने हा कहा था। किस मुँह से कहती तुम्हें, नहीं है मेरे पास एक भी किताब। पर अब मैंने सिर्फ़ तुम्हारे लिए अपने जेब खर्च से कुछ पैसे बचाकर रविन्द्र नाथ टैगोर की कहानी काबुलीवाला, गोरा, गीतांजलि, स्त्री का पत्र, आँख की किरकिरी, मुकुट और भी ऐसी ही कई सारी कहानियों की किताबें जुटाई है। और पढ़ी भी है ताकि इन कहानियों के पात्रों को साथ लेकर लंबी लंबी बातें कर सकूं तुमसे। वैसे तो मेरे बाबा कहते है मैं बहुत बोलती हूँ। पर तुम्हारा मेरे साथ होना मेरी बोलती बंद करवा देता है। मैं बस अपने शहर में तुम्हारा होना महसूस करती हूं।

कितनी ही अनगिनत तारीफें करते हो तुम हर पल भागती इस कलकत्ते शहर की जबकि मुझे नहीं भाता मेरे शहर का ये हड़बड़ायापन। टैक्सी की हॉर्न, रिक्शे वाले कि पों पों फेरीवालों की पुकार "...दादा ओ दादा एटा नेबेन मात्रो दोस टाका..." !!! उफ़्फ़ घर से कॉलेज आना और वापस घर तक जाना भी असहाय मालूम पड़ता था मुझे। पर तुम्हारे धैर्य से मैं अवाक रह जाती हूं। भागमभाग भीड़ में भी बिल्कुल शांत गति से मंद मंद मुस्कुराते चलते हो तुम। तुम्हें तो कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता इस भीड़भाड़ से। एक बार पूछा था तुमसे मैंने सिलीगुड़ी जैसे शांतिप्रिय और प्राकृतिक वातावरण में रहने वाले तुम। तुम्हें कलकत्ते के इस भीड़ से परेशानी नहीं होती, तुम एक पल के लिए भी झल्लाते नहीं हो तब भी नहीं जब भीड़ में से कोई बेवकूफ लड़की खुद तुम्हें धक्का देकर कहती "दादा एक्टू देखें चोलो" ( भैया ज़रा देखकर चलो) तब भी तुम मुस्कुराकर हाथ जोड़ लेते हो। आख़िर कैसे?

ओह... तुम्हारा जवाब हँसते हँसते लोट पोट हो जाती हूं मैं।  तुमने कहा था ऊंची हिल वाली सैंडिलें पहनना छोड़ दो और खुद के शानदार भविष्य के ख़यालो में खो जाओ रास्ते और भीड़ दोनों भाने लगते है। उसी दिन शाम में अपने लिए मैंने एक फ्लैट चप्पल की जोड़ी खरीदी। और चार जोड़े मेरे पसंदीदा हाई हील के सैंडलों को अपने घर से बेदखल कर दिया। सच ही कहा था तुमने एड़ियों को चुभने वाली चप्पलों के वजह से ही रास्ते मुश्किल लगते थे पहले, पर अब बेहद अच्छा लगता है। टैक्सी की हॉर्न, रिक्शे की पों पों, फेरीवालों की आवाज़ और तुम्हारे ख्यालों में खोकर चलते जाना। कुछ इस तरह रंग गयी हूँ मैं तुम्हारे रंग में की कभी न पसंद आने वाला चटक हरा रंग भी अब भाने लगा है मुझे।

तुम्हारे ही पसंदीदा रंग की एक जोड़ी सलवार सूट सिलवाया है मैंने। सोची थी अगली बार जब तुम आओगे हरे रंग का सूट और फ़्लैट चप्पलें पहनकर चलती रहूंगी तुम्हारे साथ मिलों तक, जब तक शहर का कोना न आ जाएं, और सोच रही थी दिखाउंगी तुम्हें कलकत्ते के इस भागमभाग शहर में एक सड़क ऐसा भी है जहां अमलतास के लंबे लंबे पेड़ है, चिड़ियों की चहचहाहट है, रंग बिरंगे फूल है और खुला आसमां है। सुना है इस जगह पर कोई आता जाता नहीं पर हां कुछ प्रेमी जोड़े दिख जाते है हाथों में हाथ लिए। सोच रही थी उसी सड़क पे जाकर करूँगी इज़हार तुम्हें, सुनाऊँगी अपने दिल का हाल, की कैसे उस दिन जब तुमने पहली बार कॉलेज के बाहर मुझसे वन विभाग के दफ़्तर का पता पूछा था। और मेरे साथ चले थे तुम कुछ दूर तक। कैसे तुमने बातों की चाशनी घोली थी कि मेरे मन में एक अलग ही छवि बन गयी थी तुम्हारे लिए। धीरे से तुमने मेरे मोबाइल का नंबर मांग लिया और किस आकर्षण में मंत्रमुग्ध होकर मैंने दे भी दिया। फ़िर तुम जब भी कलकत्ता आते तो फ़ोन करते मेरे साथ ही घूमते फ़िरते, बातें करते, खाते पीते और फ़िर वापस जाते। 2 से 3 मुलाकातों में मैंने अपना दिल तुम्हें दे दिया था। बस हिम्मत नहीं कर पाई बताने का। इस बार सोच रही थी उन्हीं रास्तों में पूछुंगी तुम्हारे दिल का राज़। मैं बटोरते रही हिम्मत और करती रही इंतजार तुम्हारे मेरे शहर में वापस आने का।

एक... दो... तीन.. और पूरे सात महीने गुज़र गए पर तुम नहीं आये। पहले तो महीने में 2 बार आ ही जाते है हैरान परेशान होकर मैंने तुम्हें अनगिनत बार फ़ोन लगाया पर नॉट रिचिवल या स्वीच ऑफ ही आया। मैं हतप्रभ भी मेरा शहर भी बैचेन था। तुम्हारी चिंता मेरे आंखों में मोटे मोटे आँसू भर देती है। पर सात महीने बाद तुम्हारा एक खत आया मेरे पास।
जिसमें लिखा था.....

धन्यवाद अज़नबी...

जिस काम की वजह से मैं बार बार कलकत्ता आता था वो काम अब सफल हुआ। इसमे एक बड़ा हाथ तुम्हारा भी है, बेरोजगारी के उन दिनों में तुमने उस अनजान शहर में मेरी काफ़ी मदद की। पर जिन्दगि के सफ़र में अब मिल गयी है मुझे मेरी सवारी। अब मैं कभी नहीं आऊंगा। मेरा इंतजार मत करना और खुश रहना। सिलीगुड़ी के वन विभाग में सरकारी नौकरी लग गयी है मेरी। अगले महीने अपने शहर की लड़की से शादी भी तय हो चुकी है। शादी की तैयारियों में फ़सा हूँ नहीं तो आख़िरी बार जरूर आता तुमसे मिलने।
                                        अलविदा अज़नबी।।।।

सच कहूं मुझे बुरा तो लगा ये पढ़कर दिल भी टूटा। पर मैं तुम्हारे सुंदर भविष्य के लिए काफ़ी खुश हूँ। ईश्वर से तुम्हारे खुशहाल जीवन के लिए दुआएँ भी करती हूँ। पर एक शिकायत रह गयी तुमसे। तुमने मुझे अजनबी कहा ये बात तो समझ आती है पर तुमने मेरे शहर को अनजान कहा ये ग़लत कहा। क्योंकि मेरे नज़र में तो मेरा पूरा शहर ही रंग चुका है तुम्हारे ही रंग में।।।।।


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2 Comments

AMAN AJ

28-May-2021 04:59 PM

बहुत अच्छी कहानी लिखी आपने ,

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Zulfikar ali

28-May-2021 02:33 PM

बहुत खूब 👍 । वेसे ठीक हुआ पीछा छूटा आपका । बड़ा भूककड था यार । इतना तो मैं भी नहीं खाता और मतलबी भी था तारीफें कर करके अपना काम निकलवाने वाला

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