152. आत्मसमर्पण : वैशाली की नगरवधू
सिंह दक्षिण -युद्धक्षेत्र की कमान गान्धार काप्यक को सौंपकर उल्काचेल केन्द्र में लौट आए । यहां आकर उन्होंने अनेक लेख लिखे, बहुत - से आदेश प्रचारित किए। इसके बाद उन्होंने उल्काचेल के उपनायक अभीति को बुलाकर कहा
“ सूर्यास्त में अब केवल एक घड़ी शेष है, काप्यक का कुछ- न -कुछ सन्देश मिलना चाहिए । मुझे आश्चर्य है, विलम्ब क्यों हो रहा है । ( कुछ पंक्तियां लिखकर ) इन्हें प्रियवर्मन् के पास पश्चिमी रणस्थल पर तुरन्त भेज दो मित्र , और तनिक पुष्पमित्र से पूछो कि पाटलिग्राम को क्या रसद की नावें भेज दी गई हैं । हां , शुक से कहना , थोड़ा शूकर-मार्दव और मधुगोलक ले आए, पर मांस गर्म हो , प्रातः बिल्कुल ठण्डा था । ”
“ और कुछ सेनापति ? ”
“ वह मानचित्र मुझे दो ! ( तनिक कुछ सोचकर ) निश्चय कुछ घटिकाओं ही की बात है । काप्यक अभी - अभी ही कार्य समाप्त कर लेगा। परन्तु आर्य भद्रिक महान् सेनापति हैं । फिर भी अब यहां से उनका निस्तार नहीं है। ”यह कहकर सेनापति सिंह ने मानचित्र पर उंगली से एक स्थान पर संकेत किया ।
“ तो सेनापति , यहीं पर समाप्ति है ? ”
“ यदि आर्य भद्रिक आत्मसमर्पण कर दें । ”
शुक्र ने आकर मधुगोलक और शूकर -मार्दव रख दिया । उसने कहा - “ भन्ते , प्रातः चूक हो गई । ”
“ अच्छा - अच्छा, चूक रसोईघर ही तक रखा कर शुक, समझा ! ”
“ जी हां ! ”
नायक ने कहा - “ पाटलिग्राम को नावें भेजी जा चुकी हैं , सेनापति ! ”
“ ठीक है मित्र , ( एक लेख देकर ) ये सब मागधों के लूटे हुए और अपहृत शस्त्रास्त्र हैं न , इन्हें अभी उल्काचेल ही में रहने दो मित्र । ”
एक सैनिक ने सूचना दी - “ महासेनापति सुमन आए हैं ! ”
सिंह ने उठकर उनका स्वागत किया और कहा
“ इस समय भन्ते सेनापति , आपके आगमन का तो मुझे गुमान भी न था । ”
“ आयुष्मान्, तेरे उत्तेजक सन्देश को पाकर स्थिर न रह सका । बैठ आयुष्मान् , किन्तु यह क्या चमत्कार हो गया ? पराजय जय में परिणत हो गई ? ”
“ ऐसा ही हुआ भन्ते सेनापति ! मनुष्य की भांति जातियों के, राष्ट्रों के, राज्यों के भी भाग्य होते हैं । ”
दोनों बैठ गए।
महासेनापति ने कहा - “ सुना तूने सिंह, सोमप्रभ ने सम्राट को बन्दी कर लिया है और देवी अम्बपाली को आयुष्मान् सोमप्रभ के सैनिक मुझे सौंप गए हैं । ”
“ देवी अम्बपाली क्या मागधों की बन्दी हो गई थीं ? ”
“ नहीं आयुष्मान् , वे सम्राट की प्राण -भिक्षा मांगने मागध स्कन्धावार में गई थीं । ”
“ क्या देवी अम्बपाली ने कुछ कहा ? ”
“ नहीं सिंह, वे तो तभी से मूर्च्छित हैं -मैंने उन्हें आचार्य अग्निवेश के सेवा- शिविर में भेज दिया है। वे उनकी शुश्रूषा कर रहे हैं । ”
“ उनके जीवन -नाश की तो सम्भावना नहीं है भन्ते ?
“ ऐसा तो नहीं प्रतीत होता , परन्तु सिंह , तूने आयुष्मान् सोमप्रभ की निष्ठा और महत्ता देखी ? ”
“ देखी भन्ते , सेनापति सोमप्रभ अभिवन्दनीय हैं , अभिनन्दनीय हैं ! ”
“ अरे आयुष्मान्, यह सब कुछ अकल्पित -अद्भुत कृत्य हो गया है। इतिहास के पृष्ठों पर यह अमर रहेगा। ”
“ काप्यक ने दो घड़ी पूर्व सन्देश भेजा था कि महासेनापति आर्य भद्रिक सब ओर से घिर गए हैं । केवल एक दुर्ग पर उन्हें कुछ आशा थी , परन्तु सेनापति सोमप्रभ के सम्पूर्ण मागध सैन्य को युद्ध से विरत -विघटित कर देने से वे निरुपाय हो गए। फिर भी उन्होंने सोमप्रभ का अनुशासन नहीं माना। कल रात - भर और आज अभी तक भी खण्ड - युद्ध करते ही जा रहे हैं । ”
“ अब तो समाप्त ही समझो आयुष्मान् ! ”
“ मैं काप्यक के दूसरे सन्देश की प्रतीक्षा कर रहा हूं ।
“ सम्भव है और रात भर युद्ध रहे , पर भद्रिक को अधिक आशा नहीं करनी चाहिए । ”
इसी समय चर ने एक पत्र देकर कहा - “ भन्ते सेनापति , काप्यक का यह पत्र है । ”
सिंह ने मुहर तोड़कर पत्र पढ़ा। फिर शान्त स्वर में कहा - “ भन्ते सेनापति , आर्य भद्रिक ने आत्मसमर्पण कर दिया है । वे आ रहे हैं । ”
“ भद्रिक बड़े तेजस्वी सेनापति हैं आयुष्मान्, हमें उनके प्रति उदार और सहृदय होना चाहिए । ”
“ निश्चय ये अस्थायी सन्धि के नियम हैं , अब इससे अधिक हम कुछ नहीं कर सकते । ”
सेनापति सुमन ने नियम पढ़े और लेख लौटाते हुए कहा - “ ठीक है आयुष्मान् , तू स्वयं बुद्धिमान है। ”
“ परन्तु क्या आप भद्रिक का स्वागत करेंगे भन्ते सेनापति ? ”
“ नहीं - नहीं , यह तेरा अधिकार है आयुष्मान् ! मैं आशा करता हूं - तू उदार और व्यवहार -कुशल है। और भी कहीं युद्ध हो रहा है ? ”
“ नहीं भन्ते सेनापति ! ”
“ ठीक है, मैं अब चला, आयुष्मान ! ”
“ क्या इसी समय भन्ते सेनापति ? ”
“ हां , आयुष्मान् ! ”
सेनापति सुमन अश्व पर आरूढ़ होकर चल दिए ।
एक बड़ी नाव घाट पर आकर लगी । कुछ व्यक्ति उसमें से उतरकर स्कन्धावार में आए। नायक ने भीतर आकर कहा - “ काप्यक आर्य भद्रिक को ला रहे हैं , भन्ते सेनापति ! ”
“ आर्य भद्रिक को ससम्मान ले आओ भद्र , मगध विजय हो गया , बहुत बड़ा कार्य सम्पूर्ण हुआ। ”सिंह ने खड़े
आगे- आगे भद्रिक चण्ड और पीछे काप्यक गान्धार ने नग्न खड्ग लिए मण्डप में प्रवेश किया ।
सिंह ने आगे बढ़कर खड्ग उष्णीष से लगाकर उच्च स्वर से कहा -
“ महामहिम मागध - महासेनापति आर्य भद्रिक को लिच्छवि सेनापति सिंह ससम्भ्रम अभिवादन निवेदन करता है ! ”
भद्रिक शान्त भाव से आकर खड़े हो गए। कष्ट और सहिष्णुता की रेखाएं उनके मुखमण्डल पर थीं , परन्तु नेत्रों में वीरत्व और अभय की चमक थी । उन्होंने स्थिर कण्ठ से कहा - “ आयुष्मान् सिंह ! मैं तुम्हें मगध -विजय पर साधुवाद देता हूं , तुम्हारी शालीनता की श्लाघा करता हूं। ”
“ अनुगृहीत हुआ । आर्य ने आज मुझे गर्वित होने का अवसर दिया है। ”
“ परन्तु भद्र, मैंने वश - भर ऐसा नहीं किया । मैं पराजित होकर बन्दी हुआ हूं । अब मैं जानना चाहता हूं कि ....। ”
“ अस्थायी सन्धि के नियम ? वे यह हैं । आर्य, मैं समझता हूं , आपको आपत्ति न होगी । ”
सिंह ने तालपत्र का लेख सेनापति के सम्मुख उपस्थित किया । उस पर एक दृष्टि डालकर सेनापति ने कहा - “ तुम उदार हो आयुष्मान् , किन्तु मैं क्या एक अनुरोध कर सकता हूं ? ”
“ मैं शक्ति - भर उसे पूर्ण करूंगा आर्य ! ”
“ महामात्य वर्षकार की अब हमें अत्यन्त आवश्यकता है। बिना उनके परामर्श के सन्धि -वार्ता सम्पन्न न हो सकेगी । ”
“ ठीक है आर्य ! ”
“ और एक बात है ! ”
“ क्या आर्य ? ”
“ मगध- सेना के बन्दी सैनिकों को उनके शस्त्रों और अश्वों- सहित लौट जाने दिया जाए। ”
“ ऐसा ही होगा , आर्य ! ”
“ धन्यवाद आयुष्मान्, मुझे तुम्हारे नियम स्वीकार हैं । यह मेरा खड्ग है। ”उन्होंने खड्ग कमर से खोलकर सिंह के सम्मुख किया ।
“ नहीं- नहीं, वह उपयुक्त स्थान पर है आर्य , मैं विनती करता हूं उसे वहीं रहने दीजिए । ”
भद्रिक ने खड्ग कमर में बांध, हाथ उठाकर सिंह को आशीर्वाद दिया और दो कदम पीछे हटकर चले गए ; पीछे-पीछे काप्यक गान्धार भी नग्न खड्ग हाथ में लिए । सिंह ने जल्दी से उसी समय कुछ आदेश तालपत्र पर लिख और दूत को दे वैशाली भेज दिया ।