Astha Singhal

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लेखनी प्रतियोगिता -07-Jan-2022 महक मिट्टी की

                               महक मिट्टी की


आंचल, पूजा और आकृति, तीनों घनिष्ठ मित्र थीं। तीनों का बचपन उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में गुज़रा था। 

पूजा के पिता एक किसान थे। आंचल के पिता की अपनी दूध की डेयरी थी। आकृति के पिता उस वक़्त सरकारी नौकरी में कार्यरत थे। 

तीनों पूजा के खेतों में सुबह से शाम तक उछलती कूदती रहती थीं। खेतों की मिट्टी की सौंधी-सौंधी महक उनके तन-मन को सरोबार कर देती थी। 

फिर उनका ये गुट टूट गया। आकृति के पिताजी का तबादला दिल्ली शहर में हो गया। जिस दिन उन्हें जाना था उस दिन तीनों सहेलियां एक दूसरे से मिलकर बहुत रोईं। बिछड़ने का ग़म बहुत गहरा था। पर साथ ही पूजा और आंचल को इस बात की खुशी भी थी कि अब आकृति को अच्छे बड़े स्कूल में पढ़ने का मौका मिलेगा। 

जाते समय पूजा ने आकृति को भेंट स्वरूप एक पोटली दी। आकृति ने उसे खोल कर देखा तो उसकी आंखें नम हो गईं। उसमें पूजा के पिता के खेत की मिट्टी थी। पूजा ने कहा,"मेरी प्यारी अकू, ये मिट्टी की महक तुझे हमेशा हमारे साथ होने का अहसास दिलाएगी।" 

आकृति उन दोनों से लिपट कर रो पड़ी। और फिर चल पड़ी एक ऐसे शहर जहां से शायद वापस वो कभी नहीं आएगी।

देखते ही देखते समय बदलने लगा। अब पूजा और आंचल दस वर्ष के हो चुके थे। दोनों पढ़ाई में बहुत होशियार थे। एक दिन आंचल ने पूजा को आकर बताया कि उसके पिताजी को एक दूध की बड़ी कम्पनी से आर्डर मिला है। अब वो अपना कारोबार शहर में करेंगे। 

ये सुन पूजा को बहुत खुशी हुई पर आंचल भी चली जाएगी यह सोचकर उसे अत्यंत दुख हुआ। उसने आंचल को भी जाते हुए मिट्टी से भरी पोटली दी। और कहा," जब भी बचपन के दिनों की याद आए तो इसे खोल कर महसूस कर लेना।" 

आंचल भी शहर चली गई। अब केवल पूजा ही रह गयी अकेली तन्हा, अपने दोस्तों को याद करती हुई। 


समय बीतता चला गया। आंचल और आकृति अपनी-अपनी दुनिया में रम चुके थे। नये दोस्त और नये माहौल में ढल चुके थे। अब गांव की यादें भी उनके स्मृति पटल से मिट चुकी थीं। अब वह सब बीस वर्ष के हो चुके थे।

आकृति के पिताजी ने एक बड़ा घर लिया था। उसमें शिफ्ट होने के लिए आकृति अपना कमरा खाली कर रही थी। तभी उसकी नज़र अपनी अलमारी के नीचे पड़े संदूक पर गयी। उसने उसे खोला तो हैरान रह गयी। उस संदूक में उसके बचपन की यादें थीं। वो खिलौने जो वो अपनी दोस्तों के संग खेलती थी। एक-एक करके उसकी आंखों के आगे बचपन की सहेलियां पूजा और आंचल का चेहरा घूमने लगा।

तभी उसकी निगाह एक पोटली पर पड़ी। उसने उसे खोला तो उस पोटली में भरी मिट्टी की सौंधी-सौंधी महक से सारा कमरा महक गया। उसकी आंखों में आंसू आ गए। कितनी स्वार्थी हो गई वो। अपनी सहेलियों की खोज खबर तक नहीं ली उसने। वो अब कैसी होंगी, कहां होंगी? 

अब उसने ठान लिया कि वो गांव जाकर अपनी सहेलियों से मिलकर आएगी। 

अपने पिताजी से इज़ाजत ले आकृति गांव के लिए निकल पड़ी। जब गांव पहुंची तो देखा कि कुछ ज़्यादा नहीं बदला था गांव में। बस बैलगाड़ी कम मोटरसाइकिल ज़्यादा चल रही थीं अब। वो किसी तरह पूछते-पूछते पूजा के घर पहुंची। दरवाज़ा खटखटाया तो उसकी मां ने खोला। आकृति उनको पहचान गयी। उसने अपना परिचय दिया तो पूजा की मां की आंखों में आंसू आ गए। 

"तू तो भूल ही गयी अकू अपनी सहेली को। कितना याद करती है वो तुम दोनों को।" उसकी मां ने आकृति को गले से लगाते हुए कहा। 

"दोनों को? मतलब आंचल भी यहां नहीं है?" आकृति ने पूछा ‌।

"उसके पिता भी शहर चले गये। अब तो बहुत बड़ा दूध का कारोबार है उनका। देख, ये दूध का पैकेट उसके पिता जी की कम्पनी का है।" पूजा की मां ने उसे पैकेट दिखाते हुए कहा।

"आंटी, पूजा कहां है?" आकृति ने उत्सुकता वश पूछा।

पूजा की मां थोड़ा हिचकिचायी, फिर बोलीं, "उपर के कमरे में है। आ ले चलती हूं।"

ऊपर पहुंच कर उन्होंने आकृति को दरवाज़े के बाहर ही खड़े रहने को कहा और पूजा को आवाज़ लगाई। 
पूजा सादी सी सलवार कमीज़ में बाहर आई। आकृति उसे देखते ही खिल उठी और उसने जैसे ही उसे गले लगाने के लिए कदम आगे बढ़ाए तो पूजा की मां ने उसे रोकते हुए कहा, "अभी नहीं, अभी ये अशुद्ध है।" 

आकृति कुछ समझ नहीं पाई। पूजा की मां ने पूजा से कहा,"पहचाना नहीं अपनी सहेली को? ये अकू है।"

पूजा उसे देख बहुत खुश हुई पर बाहर आ उसे गले नहीं लगा सकती थी। समाज की दकियानूसी सोच की बेड़ियों में जकड़ी हुई थी। 

अपनी सहेली से बिना गले मिले वापस आना आकृति को बहुत अखर रहा था। 

उसने जब उसकी मां से पूछा तो उन्होंने कहा,"आकृति तुम शहर में पली बढ़ी हो। गांव की सोच अलग होती है। यहां लड़कियां अपने उन पांच दिनों में कमरे में ही रहती हैं। क्योंकि वो अशुद्ध होती हैं। खाना-पीना उन्हें वहीं दे दिया जाता है। और कोई उनसे मिलने अंदर नहीं जा सकता।" 

"पर... आंटी ये सब घटिया सोच है। शहर में लड़कियां इन दिनों में हर वो कार्य करती हैं जो वो नॉर्मल दिनों में करती हैं। लड़कियां चांद तक पहुंच गईं और हमारा गांव आज भी इन दकियानूसी सोच की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ है।" आकृति को पूजा के लिए बहुत दुख हो रहा था। 

"जानती हूं पर समाज में रहना है तो ये करना पड़ेगा। और धीरे बोल बेटा, पूजा की दादी ने सुन लिया तो हंगामा खड़ा हो जाएगा। चल तू हाथ मुंह धोकर आराम कर ले।" पूजा की मां ने कहा।

रात को जब सब सो गए तो आकृति चुपचाप ऊपर वाले कमरे की तरफ गई और दरवाज़े पर पहुंच धीरे से खटखटाया। पूजा ने तुरंत दरवाज़ा खोल दिया। आकृति उसके गले लग गई। पूजा ने उसे अंदर खींचा और बोली,"मैं जानती थी कि तू कुछ ऐसा ही करेगी। इसलिए सोई नहीं थी।" 

दोनों काफी देर रोती रहीं। फिर आकृति ने उससे पूछा,"पूजा, आज के युग में ये गांव इतना पिछड़ा कैसे रह गया?" 

"बहन, गांव वालों की सोच की वजह से। वो अपनी सोच बदलना ही नहीं चाहते। हम लड़कियों को पढ़ने के लिए कॉलेज जाने दे रहे हैं ये क्या कम है।" पूजा बोली। 

आकृति ने पूजा के कमरे पर नज़र दौड़ाई। सिर्फ एक खाट, कुछ कपड़े और मिट्टी का घड़ा।और कुछ नहीं था उस कमरे में।

"यहां कैसे रहती है तू पूजा? कोई सुविधा नहीं है यहां।" आकृति हैरान हो कर बोली।

"बहन, अब तो आदत सी हो गई है। हर महीने पांच दिन इस कमरे में बिताने ही पड़ते हैं। मुझे ही नहीं गांव की हर लड़की को। और लड़कों के हाथों हंसी का पात्र भी हम ही बनती हैं। जब कोई भी लड़की अपने घर के ऊपर के या पीछे के कमरे में दिखती है तो आसपास के सभी लड़कों को पता चल जाता है। और वो कभी दबे रूप में तो कभी ऊंचे स्वर में हमारे ऊपर फब्तियां कसने से बाज नहीं आते। अब तो यही नियति है।" पूजा नम आंखों से बोली।

"ये नियति नहीं है। सरपंच से बात करनी चाहिए। ये तो ज़ुल्म है।" आकृति बोली।

पूजा व्यंग्यात्मक हंसी हंसते हुए बोली,"उनके घर में स्वयं ऐसा होता है। तू उनकी सोच क्या बदलेगी। सोच इतनी आसानी से नहीं बदलती। हमने क्या कोशिश नहीं करी? पर क्या मिला? तिरस्कार और  अपमान के अलावा कुछ नहीं।" 

आकृति बहुत देर तक कुछ सोचती रही। फिर बोली,"गांव की सोच तो नहीं बदल सकते पर तुम सब लड़कियों को एक आरामदायक स्थिति में तो ला ही सकते हैं।"

पूजा उसका मतलब नहीं समझ पाई।

"देख बहन पहले ही मां- पिताजी को मेरी वजह से गांव के लोगों और सरपंच से बहुत सुनना पड़ा है। अब तू कुछ और बखेड़ा मत खड़ा करना।" पूजा ने कहा।

आकृति बोली,"आंचल का कुछ पता है तुझे?" 

"कहां। तुम दोनों तो यहां से जाने के बाद गायब ही हो गईं।" पूजा ने मुंह बनाते हुए कहा।

"अरे! तो ढूंढ लेते हैं।" आकृति ने जेब से फोन निकाला और फेसबुक पर पहले आंचल के पिताजी को उनकी दूध की कम्पनी के माध्यम से ढूंढा और उनकी फ्रैंड लिस्ट के ज़रिए आंचल को ढूंढ निकाला। फिर उसने आंचल को फ्रैंड रिक्वेस्ट भेजी।

वहां आंचल ने जब आकृति की फ्रैंड रिक्वेस्ट देखी और उसके प्रोफाइल पिक्चर पर एक जानी पहचानी पोटली की तस्वीर देखी तो उसकी आंखें नम हो गईं। उसने तुरंत रिक्वेस्ट कबूल की और अपना नम्बर भेजा।

तीनों सहेलियों ने एक-दूसरे से वीडियो कॉल पर बात की। आंचल भी पूजा की हालत देख दुखी हो गई और आकृति के साथ उसके प्लान में शामिल होने गांव आ गयी।

आखिरकार गांव की मिट्टी की महक ने तीनों सहेलियों को एक बार फिर मिला दिया। आकृति और आंचल सरपंच के पास गये और अपना प्रस्ताव रखा‌।

"अरे! छोरियों तुम हमारे गांव की लड़कियां हो इसलिए सुन ली तुम्हारी बात। अब जाओ अपने शहर और हमें हमारी प्रथा निभाने दो।" सरपंच ने गुस्से से बोला।

"ताऊजी, हम कहां कह रहे हैं कि आप अपनी प्रथा को बदलो, हम तो केवल उन सब महिलाओं और लड़कियों को आराम से रहने का प्रबंध करना चाहते हैं।" आकृति ने कहा।

"क्यों, वो घर में आराम से नहीं रह रहीं क्या?" सरपंच ने कहा। 

"ताऊजी, आप अपनी बिटिया से पूछो, क्या वो आराम से रह रही है? हर समय लड़कों की निगाहें घूरती रहती हैं। उन्हें जैसे ही पता चलता है कि हम अकेले कमरे में हैं, गन्दी-गन्दी बातें बोलते हैं। जिसे हम बता भी नहीं सकते। लड़कियां यदि बाकी औरतों के साथ रहेंगी तो सुरक्षित रहेंगी। क्या एक सरपंच होने के नाते गांव की बहू-बेटियों को सुरक्षित करना आपकी ज़िम्मेदारी नहीं है?" आंचल ने विनम्रतापूर्वक कहा।

सरपंच को उनकी बात समझ में आ गई और उन्होंने उनके प्रस्ताव के लिए हामी भर दी। एक हफ्ते में कार्य शुरू हो गया। लगभग एक माह में कार्य खत्म हुआ। आंचल और आकृति के पिताजी ने भी उनकी बहुत मदद की। 

वो दिन भी आया जब आंचल, आकृति और पूजा सब गांव की औरतों को लेकर वहां पहुंचे। गांव से एकदम सटकर एक ज़मीन का टुकड़ा खाली पड़ा था। आंचल और आकृति ने वहां एक सुन्दर चार कमरों का मकान बनवाया। हर कमरे में बिस्तर, कम्बल, अलमारी की सुविधा के साथ टेलीविजन की सुविधा भी दी। साथ ही पंखे और कूलर का इंतज़ाम भी किया गया। यह सब देख सारी औरतें और लड़कियां खुश हो गई। 

"आज से आप सब अपने उन अमूल्य दिनों में यहां आकर रहेंगी। हमने आपकी हर सुविधा का ख्याल रखा है। और खाना बनाने के लिए रसोई घर में हर चीज़ उपलब्ध है। अब आप जो चाहे जब चाहें खा सकते हैं।" आंचल ने सबको संबोधित करते हुए कहा।

"आप सब इकट्ठे रहेंगे तो अकेलापन भी महसूस नहीं होगा और सुरक्षित भी रहेंगे। अब इस जगह की साफ-सफाई और देख-रेख की ज़िम्मेदारी आप की है। और इस जगह का उद्घाटन माननीय सरपंच जी के हाथों से होगा।" आकृति ने सरपंच को पूरा मान-सम्मान देते हुए कहा। 

सरपंच ने अपने हाथों से उस जगह का उद्घाटन किया जिसका नाम उन तीनों सहेलियों ने मिलकर "महक मिट्टी की" रखा था। 

उस दिन से गांव की औरतों की ज़िंदगी बदल गई। गांव की मिट्टी की महक अपने मन में बसाए आंचल और आकृति वापस अपने शहर लौट गयीं।

🙏
आस्था सिंघल

#प्रतियोगिता के लिए

#लेखनी 
#कहानी का सफ

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9 Comments

AAHIL KHAN

10-Jan-2022 04:16 PM

Very very nice

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🤫

08-Jan-2022 10:00 AM

Waah... Behad intresting kahani. Sundar kahani lekhan ke liye badhai ki paatra h aap

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Punam verma

08-Jan-2022 08:51 AM

Nice

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