क़लम कितना लिखती हो तुम
क़लम कितना लिखती हो तुम
कलम कितना लिखती हो तुम,
मन में छिपे अगणित भावों को।
कागज पर कैसे उकेरती हो तुम,
क्या तुम कभी थकती नहीं हो।
परिश्रम कितना करती हो तुम,
कलम कितना लिखती हो तुम।
अगर कभी तुम थक जाती,
लेखक की मुश्किल बढ़ जाती।
उसके कुछ प्रयत्न के बाद,
बढ़ता तुम्हारी गति का प्रवाह।
यह सब कैसे कर लेती हो तुम,
कलम कितना लिखती हो तुम।
तुम सब कुछ तो लिख देती हो,
पर श्रेय कभी क्यों नहीं लेती हो।
आखिर लेखक के प्रसिद्धि का,
एक माध्यम तुम भी तो हो।
उसके साथ हमेशा रहती हो तुम,
कलम कितना लिखती हो तुम।
कागज के पन्ने पर दौड़ती रहती तुम ,
पन्ना तुम्हारी स्याही से सुशोभित होताा
तुम्हारी दौड़ने से एक रचना पूरी होती,
पाठक उसे बहुत ही चाव से पढ़ता।
वाह वाह बस लेखक ही की करता,
क्या कभी तुम्हारे बारे में भी है सोचता?
बहुत मंथन होता इस जिज्ञासु मन में,
तुम हमेशा रहती हो क्यों नेपथ्य में?
कर देती हो तुम कमाल एक ही शब्द में,
शूल की तरह चुभ जाती बहुतों के मन में।
मैं अपनी रचना लिखूंगी बहुत यत्न से,
उसका शीर्षक होगा मेरी प्रिय कलम से।
स्नेहलता पाण्डेय 'स्नेह '
नई दिल्ली
Aliya khan
02-Jun-2021 02:08 PM
वाह mam बहुत खूब
Reply
Apeksha Mittal
02-Jun-2021 01:54 PM
बेहतरीन रचना ,
Reply
Shilpa modi
02-Jun-2021 01:42 PM
अति उत्तरम उत्कृष्ट रचना।
Reply