सांवरी

सांवरी


सांवरी..... ओ सांवरी...... उठ बेटा, देख घणा दिन निकल आया, कित्तो घाम हो रिया है, इब तो सूरज भी सर पे चढ़ आयो, उठ जा बेटा...... कजरी ने चादर खींचते हुए अपनी लाडली बेटी को उठाने की कोशिश की।
खाट पे लेटी सांवरी ने झट मां के हाथ से चादर झपट के खुद को उस में लपेटा और बोली, मां री, सोवन दे ना, काहे सुब्बा सुब्बा परेसान करे है। इतना कह कर एक बार फिर से सो गई।
उधर हुक्का गुड़गुड़ाते भंवरलाल ने, आवाज लगाई, रि कजरी, सोवन दे ना उस ने, दिन भर तो बेचारी गली गली मारी मारी नाचती फिरे है। एक काम कर, चुले से थोड़ी सी आग दे दे, चिलम बुझ गई है, थोड़ा तंबाकू भी पकड़ा दे। और सुन घणी भूख लाग री सै, थोड़ी चा और रोटी दे ना।
कजरी पैर पटकती, बड़बड़ाते हुए डेरे के पीछे बने चूल्हे की तरफ चल दी, पर उसके शब्द भंवरलाल और सांवरी के कानो में पड़ते रहे।
म्हारा के, दोनो बाप बेटी करो मन की, अरे सुब्बा उठ्ठो, नहा धो के प्रिभु का नाम ले के काम पे जाओ तो ४ पिसा फालतू मिल जा सी, छोरी बड्डी हो ली इब इस सावन में इसका लगन कराऊं तो उसके वास्ते पिसा लागेगा के ना। अपणी बिरादरी में भी इब तो लोग पिसों की बात करें है।
बड़बड़ाते हुए कजरी ने पतीली से चाय लौट के स्टील के गिलास में डाली, डलिया से दो रोटी निकाल के एक स्टील की प्लेट में डाल के उसने भंवरलाल को पकड़ाई, फिर चूल्हे से अंगारे और तंबाकू चिलम में भरा और अपने मर्द के पास बैठ कर हुक्का अपनी तरफ खींचा और जल्दी जल्दी दो तीन कश लगाए, और फिर नाक मुंह से धुएं का गुबार छोड़ती अपने काम में लग गई।
सुबह के 7 बज रहे थे और कलबेलिया बंजारों की बस्ती में ज्यादातर लोग अपने अपने काम में जुटे हुए थे। राजस्थान के पाली इलाके से आने वाले कलबेलिया, एक सपेरा समुदाय है, जो शहर शहर घूमते रहते हैं। मर्दों का ज्यादातर पेशा सांप नचाना और सांपों को पकड़ के पालना होता है, साथ ही कुछ लोग तो जड़ी बूटियों से इलाज भी सीख गए हैं और लोगों को तरह तरह की देसी दवाएं बना कर उनकी बीमारियों में राहत पहुंचाते हैं। वहीं कुछ बंजारों ने औजार बनाना टोकरी बनाना ऐसी कलाओं  में भी खुद को पारंगत किया है तो वो लोग कई तरह की चीजें बनाते और उनको बेचते हैं।
एक शहर से दूसरे शहर खानाबदोशों का जीवन, हर परिवार की पूंजी उनके हाथ और एक अदद बैलगाड़ी जिसे वो तरह तरह की चीजों से सजा के रखते हैं। शहर के आसपास खुली जगह में बस जाते हैं, अपने अपने तंबू गाड़ कर। हर झुंड का एक मुखिया भी होता है जो आपसी सामंजस्य बना के रखता ताकि पूरे बस्ती वाले अपना जीवन यापन ठीक से कर सकें। इनके अपने ही नियम कायदे कानून हैं जिसे तोड़ने की इजाजत किसी को नहीं है।
कबीले की बुजुर्ग और अधेड़ महिलाओं की जिम्मेदारी बच्चो को पालने की, खाना चौका की और डेरे की रख रखाव की रहती।
वहीं जवान लड़कियां और बच्चियां शहर की गली गली में घूम कर अपने प्रसिद्ध नागिन नाच से लोगों का मनोरंजन करती हैं और जिस से जो भी भेंट या पैसा मिल जाए उसे हंसी खुशी स्वीकार करती हैं।
इनको इनकी पोशाक से दूर से ही पहचाना जा सकता है, बदन पर शीशे, सितारों से जड़ी रंग बिरंगी चोली, सर पर लाल या काले रंग का लंबी ओढ़नी जिसमे ढेर सारे सलमे सितारे और शीशे जड़े होते हैं। एक बड़े घेर का घाघरा, ज्यादातर काले या सुर्ख रंग का। हाथों में चांदी और हाथी दांत के कड़े जो कलाई से शुरू होकर कभी कभी कोहनी के उपर तक होते हैं। पांव में चांदी की पाजेब या कड़े और बिछिए, माथे पर चांदी का टीका और चेहरे पर गोदी गई बहुत सी बिंदियां।
हमारी कहानी की नायिका, सांवरी भी रोज सज धज कर अपने बचपन के सखा और होने वाले पति धीरू के साथ अपनी परंपरागत पोशाक में लोगों को नागिन नाच दिखा कर मंत्रमुग्ध करती है।
22–23 वर्षीय सांवरी, अपने मां बाप ही नही पूरे कबीले की चहेती है। ऊंचा लंबा कद, गोरा रंग, तीखे नयन नक्श, कमर से नीचे झूलती वेणी, तेज तर्रार बड़ी बड़ी आंखें जिसमे हर वक्त सुरमा और सुनहरे भविष्य के सपने रहते है। सुरीली मधुर आवाज जो बरबस किसी को भी अपनी तरफ खींच ले, और साथ ही उसका लोच दार भरा बदन, जब लहरा के नाचती है तो लगता है जैसे सचमुच कोई नागिन बीन की आवाज पर मदमस्त होकर लहरा रही हो।
पर सांवरी जितनी दिखने में खूबसूरत और मधुर है उतनी ही स्वभाव की तीखी और तेज भी, हालांकि वो सड़कों पर  नाच गा कर अपना और अपने परिवार का भरण पोषण करती है पर मजाल है कोई उसकी तरफ जरा सी भी तिरछी निगाह कर के देख ले, उसकी कमर में उस जैसी ही एक तीखी कटार हमेशा रहती है, जरा सा भी कुछ ऊंच नीच दिखे तो बिजली की तेजी से कटार बाहर निकल आती है और फिर सांवरी किसी खूंखार शेरनी की तरह सामने वाले पर टूट पड़ने को तैयार हो जाती है।
साथ ही उसका मंगेतर धीरू भी हर समय साए की तरह उसके साथ रहता है।
सांवरी को दो ही शौक हैं नाच और हिंदी फिल्में, वो हमेशा सोचती है काश एक दिन उसे भी बड़े परदे पर लोगों के सामने अपनी कला को दिखाने का कोई मौका हाथ आए। इसी उम्मीद के सहारे वो रोज वो उठती की कभी तो किसी की नजर उस पर पड़ेगी और उसकी किस्मत की चाभी उसके हाथ लग ही जायेगी।
आजकल सांवरी और उसका कबीला राजस्थान की राजधानी जयपुर में अपना डेरा जमाए है। सांवरी ने देखा है बहुत सी फिल्मों में जयपुर की शूटिंग होती है, वैसे भी बहुत से देशी विदेशी लोग जयपुर घूमने आते हैं, शायद कभी कोई उसे भी मिल जाए जो उसे उसका सपना पूरा करने में मदद करे, हर रोज वो यही सपना लेकर जागती है और हर रात इसी सपने में खो कर सो जाती है।.....

क्रमश:

आभार – नवीन पहल – १०.०१.२०२२ 💐🌹🙏

आपके विचारों का इंतजार रहेगा, अगला भाग जल्दी ही.....

# लेखनी उपन्यास प्रतियोगिता हेतु


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22 Comments

Barsha🖤👑

01-Feb-2022 08:32 PM

Nice

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देविका रॉय

28-Jan-2022 11:24 PM

Kahani vakai khubsurat bn padi b

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Punam verma

23-Jan-2022 02:02 PM

Nice

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